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विरह के अंग]
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  शब्दार्थ-ऊठै= उठे । भि= फिर । पडै= गिर= गिर पडती है । दरसद=दर्शन। कारनि = कारणी।

मृवा पीछै जिनि मिलै कहै कबीरा राम ।
पाथर घाटा लोह सव (तथ) पारस कौणे काम ॥ ८ ॥

सन्दभॆ- प्रस्तुत साखी का वण्यं-विषय सप्तम साखी के विषय से साम्य रखता है । कवि ब्रह्म अनुग्रह का आकांक्षी हैं, परन्तु शरीर रहते ही ।

भावार्थ-कबीर कहते है कि है राम । पचतत्व में मिल जाने के अनन्तर यदि आपने अनुग्रह किया तो उससे लाभ, उससे प्रयोजन? पारस पत्थर की खोज मे, खोदते-खोदते यदि लौहस्त्र यदि पूर्णतया घिस जाये,और अन्त में पारस के पत्थर प्राप्त भी हो तो उसका क्या प्रयोजन ।

शब्दार्थ--मूवा = मृत्यु । जिनि = मत । पाथर = पत्थर घाटा = क्षीण । कौने = किरु ।


अन्देसडा़ न भाजिसी, सन्देसौ कहियाँ ।
कै हरि आया भाजिसी, के हरि ही पासि गयाँ ।।६१।।

सन्दर्भ—प्रातुत साखी से वियॊगिनी आत्मा की द्वन्द्वात्मक परिस्थिति और अनुभूति का चित्रण हुआ है ।

भावार्थ— साधना के पथ पर प्रतीक्षित विरहिणी, उस पथ के पथिको द्वारा प्रियतम की सेवा मे संदेश भेजती हुई कहती है कि द्वन्द्व या सवल्पविकल्प की स्थिति दूर नहीं होती है। या तो प्रिय कृपा करके अनुग्रह करें या मैं ही प्रिय की सेवा में प्रस्तुत हूँ ।

शब्दार्थ -अदेसटा = अवेणा =चिन्ना,द्वन्द्व् भाजिसी = नाहीं दूर होगा । संदेसौ = सन्देश । कहियॉ =कहना । फै = या ।


आइ न सकौ तुझ पै, सकूॅ न तुझे बुलाइ ।
जियरा यौंही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ ।।१०।।

सन्दर्भ— प्रस्तुत साखी में कवि या साधक की वीरह भावना को ध्यान हुई है साधन अपने हीनताओं के रूप में परिमल है।


भावार्थ —आत्मा रूपि विरहिणी प्रियतम की प्रनि निदेश करति हुई कहती है कि हे प्रिय । मैं तृम्हारे पास् अपनी सीमावों, हीनतावों के कारण नहीं और तुम्हें अपने पास बुला अपने को मना नहीं वरिष्ठ कर पाई प्रत्येक काहे की बिरहा की अग्नि में इसी प्रकार तप तप कर प्राण में लोगे।