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विरह कौ अंग]
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चोट सताँणी विरह की,सब तन जर जर होइ ।
मारणहारा जाँणि है, कै जिहि लागी सोइ ॥१४॥

प्रसंग— विरह की चोट एव पीड़ा से विरही का समस्त शरीर जंजर हो रहा है।

भावार्थ— विरह की चोट ने मर्म को आहत कर डाला और समस्त शरीर जंजर(अथवा शिथिल ) हो रहा है । इस पीड़ा का अनुभव नही करेगा जिसने शब्द रूपी बाण मार कर प्रेम एवं विरह की पीढ़ा समुत्पन्न की है, या जिसके यह बाण लगा है ।

शब्दार्थ— सतांणी = सतानी = सताने वाली । जरजर = जजंर =विचिल । मारणहारा = मारने वाला। जांणि है = जानि है = जानेगा । कै = या ।

कर कमाण सर साँधि करि, खैचि जुमारया मांहि ।
भीतर भिधा सुमार है, जीव कि जिवै नांहि ॥र१५।।

प्रसंग— सदगुरु ने जब से शब्द रुपी बाण मारा है तब से प्रेम की मधुर पीड़ा, विरह की चोट सवल हो छठी है ।

भावार्थ— सतगगुरु ने हाथ मे कमान लेकर शब्द रुपी बाण शक्ति भर खीचकर मारा है । तब से शब्द रुपी बाण ने ममॆ को आहत कर डाला । अब वियोगी जीवन एवं मृत्य के मध्य मे समय व्यतीत कर रहा है ।

शब्दार्थ— सांधि = संधान = लक्ष्य करके । खैचि= खीच कर शक्ति भर मांहि= आभ्यान्तर मे । भीतर = अन्तम। भिधा भिदा= भद गदा। सुमार=गभींर चोट।

जब हूँ मारया खैचिकर, तब मैं पाई जांणि।
लागी चोट मरम्म की, गई कलेजा छाणि।।१६।।

प्रसंग— शब्द वासा के लगते ही ज्ञान जाग्रत हो गया । अब उस प्रेम और विरह को व्यधा ने ममॆ को आहत कर डाला है ।

भावार्थ— सतगुरु ने जब खीच कर शब्द बाण मुझे मारा तो मै ज्ञान से सम्पन्न हो गया। शब्द बाण के फल स्वरुप मर्म अहत् हो गया और कलेजा पीड़ा अभीभूत हो गया।

शब्दार्थ— मै= मुझे। जांणि = जाण=जान। मरम्म= मर्म = अभिभूत।

जिहि सरि मारि काल्हि, सो सर मेरे मन समझा।
तिहि सरि मारि ,सरबिन सचपाँऊ नहीं ॥१७॥