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[कबीर की साखी
 

 

प्रसंग— सतगुरु द्वारा मारा हुआ शब्द रूपी वाण और उससे समुप्तन्न पीडा मन को मधुर प्रतीत होती है।

भावार्थ — हे सतगुरु! जिस शर या वाण से आपने मुझे कल मारा था उसी से आज भी पुनः मर्म की आहत कीजिए। वह शब्द रूपी वाण मेरे मन में बस गया है। शब्द वाण की चोट सहन किए बिना मुझे सुख नहीं मिलता है।

शब्दार्थ — सरि=सर=शर=वाण। काल्हि=कलि=कल=विगत दिन बस्या= बसा=बस गया है। तिहि=तिह=उस। सचपाऊं=सुख।

विरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम वियोगी ना जिवै, जिवै त बौरा होइ।।१६।।

प्रसंग — विरह के प्रभाव से साधक का तन क्षीरग, मन उन्मन प्रतीत होता है। राम वियोगी संसार से वियुक्त होकर जीवन यापन करता है।

भावार्थ— जबसे विरह रूपी सपं शरीर में निवास करने लगा है तब से कौई मंत्र या औपधि काम नहीं देती है। राम का वियोगी संसार से उदासीन हो कर जीवन यापन करता है, वह जीवन्मुक्त होकर संसार से जीवित रहता है।

शब्दार्थ— भुवगम=भुजंग=सपं। मंत्र= औपधि। विवोगी=वियोगी। बौरा=असंतुलित।

विरहा भुवंगम पैसि करि, किया कलेजै घाव।
साघू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव।।१६।।

संदर्भ— विरहानुभूति साधुजनों को प्रिय लगता है। विरह जनित आनन्द अद्वितीय है।

भावार्थ—विरह भुजंग से जाग्रत होकर ममं को आहत कर डाला है। साधु जन विरह भुजंग से दूर रहने की चेष्टा नहीं करते हैं। उनका समहन शरीर विरह भुजग के प्रसार का क्षेत्र है।

शब्दार्थ— भुवंगम=भुजग- सर्प। पैसि=पैठि, प्रविष्ट होकर। मोड़ही- मोडते है। भावै-रुचिकर लगे। त्यूँ - त्यो तैसे। खाव- खालो।

सब रॅग नंतर बाव तन,विरह बजावै नित्त।
और न कोई सुणि सकै, कै सांई कै चित्त॥१०।।

सन्दर्भ— विरह का शरीर पर एक छत्र साम्राज्य है। शरीर रूपी रवाब को विरह रूपी कलाकार बजा रहा है।