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विरह कौ अग]
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भावार्थ—विरह शरीर रुपी रवाव को नित्य वजाता है। शिराएं उन वाघय्ंत्र मे तान (या ततु) का काम दे रही है । इस रवाव से प्रस्फुटित राग या तो स्वामी (सत गुरु) सुन पाता है या साधक।

शब्दार्थ— रग = रगे,शिराएं। रवाव= एक विशिष्ट वाद्य यंत्र। तन = शरीर । सुरिग= सुनि=सुन।

विरहा वुरहा जनि कहौ,बिहरा है सुलितान।
जिह् घटि विरह न संचरै,सो घटि सदा मसान ।।२१॥

सन्दर्भ—विरहा शरीर का सुल्तान है।

भावार्थ— विरह चुरा है,ऐसा मत कहो। विरह शरीर का सुलतान है। जिस शरीर मे विरह की गति नही है,वह शरीर स्मशान सहश है।

शब्दार्थ—वुरहा =चुरा है। जिन-मत-। सुलितान = सुलतान=सम्राट। घटि=घट-शरीर। मसान=श्मशान-मरघट।

अंषणियां झांई पड़ी,पंथ निहारि निहारि।
जीभडियाँ छाला पड़या,राम पुकारि पुकारि॥२२॥

सन्दर्भ—प्रिय की प्रतीक्षा करते करते अग-प्रत्यंग,जिथिल और जजंर हो गये है।

भावार्थ—विरह के प्रभाव से वियोगिनी की आंखो मे प्रतिक्षा करते-करते म्फाई पड गई और प्रिय का नाम पुकारते-पुकारते जिह्व मे छाले पड़ गए।

शब्दार्थ—अपणियां-आंखे। झाई-मद । निहारि-देखकर । जोभडियां-जिह्रा।पडया=पडा।

इस तन का दीवा करौ,वाती मेल्यूँ जीव।
लोही सीचौं तेल ज्यूँ,कब मुख देखौ पीव ॥२३॥

सन्दर्भ— विरहिरगी चिर काल तक प्रतोक्षा मे अनुरक्त रहना पाहनो है। शरीर रुपो दीपक में प्राणों की वतिका सुरक्षित रख कर यह प्रिय के दर्द को आलोकित करना चाहती है।

भावार्थ—चिरहिणी कहती है कि इन तन को पोरक चना ढानूं अौर उनके प्रारगा की पतिवा टालपर रऊ नेन मे निपित करते हुए,प्रिय का मुख देखने के लिए मै फिर प्रतीक्षित रहुंगी।

शब्दार्थ—दोवा=दीपक। पगेँ=पमं। बातए=वती। गल्यूं= टाउं सोहो=स्न=रण। सीणो=मिणिल परं।