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विरह कौ अंग]
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सन्दर्भ —विरह की तीव्रता अन्दर ही अन्दर प्रदग्ध रहे ।

भावार्थ — यदि प्रिय के विरह मे रोता है तो वल घटता हे वक्ति क्षोण होती है हंसता हूँ लोकिक आनन्दो मे संलग्न होता हूँ तो प्रिय राम से दूर होना है अत: प्रिय का ध्यान मन ही मन , विरहानुभूति अंतस मे होनी चाहिए । प्रकटिन होने के लिए अवकाश नही है। य या धुन अंदर ही अन्दर काष्ठ को खा जाता हे उसी प्रकार विरहाग्नि अदर ही अदर प्रदग्ध रहे ।

शब्दार्थ — घटै=घटे=अल्प हो । हसौ=हसू । रिमाइ= नाराज हो माहि=मे । विसूरर्णा =स्मरण करना । घुण=घुन ।

हॉसि हॉसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ ।
जो हाँसेही हरि मिलै, दुतौ नही दुहागनि कोइ ॥ १६ ॥

सन्दर्भ— प्रिय या व्रहा साघना से साम्प्राप्ति होता है । वह लौकिक ऐश्बर्य से दूर है ।

भावर्थ— लोकिक आमोद-प्रमोद के मध्य मे प्रिय की प्राप्ति नही होती है प्रिय प्राप्त किया जाना है विरहानुभूति के द्वारा । यदि हंम खेल कर ही प्रिय मिलता तो कौन अभाग्यशाली रहता।

शब्दर्थ—कत=प्रियतम । जिनि=जिन जिसने । तिनि=तिसने । हासे-हो=हंसने से ही । दुहागनि=दुहागिन=दुर्भाग्य्शलिनी ।

हाँसी खेलौं हरि मिलै, कारण सहै परसान ।
काम क्रोध त्रिप्णां तजै,तहि मिलै भगवान ॥३०॥

सन्दर्भ —आमोद-प्रमोद तथा माया मे सलग्त रहकर कही व्रहानुभूति होनी है । कम,क्रोध तथा तृप्णा का परित्याग करने से ही प्रिय के माव तादात्य नहना पिता होता है।

भावार्थ— यहानुभूति हंमो-खेल और माया मे अनुरन रह कर नही होनी हे । कम, क्रोध तथा तृप्णा का महज कर देने ने हो सहानुभूति होनी है।

शब्दार्थ—हानी==हानि धेन मे । पोगा = स्पैन । पर=प्रवर=तेन । मान=धान, तेज धार ।

पुत पियारो पिता कौ,गौहनि लागा घाइ ।
लोभ मिठाई हाथ दे, आपण गया भुलाइ ॥ ३९ ॥

सन्दर्भ— माया अरमाप्ति को पप कर होनी है ।