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[कबीर की साखी
 

 

भावार्थ-आत्मरुपी पुत्र परमपिता को बहुत प्रिय था । वह परमपिता से अभिन्न था। परनतु माया ने लोभ रुपी मिठाई वालक के हाथ मे पकडा़ दी ,तत्ब से वह अपने पिता को विसर गया ।

शब्दार्थ-पियारो=पियार=प्यार=प्रिय । कौ=को गोहनि। घाइ-दौड़ कर। हाथि=साथ । आपरण=अपना=अपने को अथवा आत्म तत्व को।

डारी खाँड पटकि करि अतरि रोस उपाइ ।
रोवत रोवत मिल गया, पिता पियांरे जाइ ।।३२।।

सन्दर्भ— अन्ततोगत्वा आत्मारूपी बालक चेतन पर सचेत हो गया । ओर वह पुन:पिता से अभिन्न हो गया।

भावार्थ—अन्ततोगत्वा सचेत होकर बालक रूपी अत्मा ने रोषपूर्वक लोभ-मिठाई को पटक(फेक)दिया और रोते- रोते उसे परमपिता की प्राप्ति या अनुभूति हो गई।

शब्दार्थ—खाड= शकर,मिठाई । अतरि= अन्तर अन्तस, हदय। रोम=रोप=असन्तोप । उपाई= उत्पन्न हुआ ।

नैनां अतरि आचरूँ, निस दिन निरपौं तोहि ।
कब हरि दरसन देहुगे, सो दिन आवै मोहि ॥ ३३ ॥

सन्दर्भ— हे प्रभु ! आपको अपने नैनो में बसा लूं,और प्रतिक्षण आपके दर्शन करता रहूँ।।

भवार्थ— हे प्रभु । आपको अपने नेत्रो मे बसा लूं; जिसमे मैं आपको प्रतिक्षण देखा करूं। हे हरि !वह दिन कब आएगा,जब आपके दर्शन प्राप्त होगा।

शब्दार्थ —अतरि= अन्तर मे ।आचरुं=वमा लूं। निरपौ=देखू दरसान=दर्शन । देहुगे=दोगे ।

कबीर देखत दिन गया,निस भी देखत जाइ।
विरहरिग पिव पावे नहीं, जियरा तलपे माइ ॥३२ ॥

सन्दर्भ—प्रतीक्षा करते-करते जीवन बीत गया। विरहणों विरह मे उपलित हे।

भावर्थ—कबीर कहते हे कि प्रिय की प्रतिक्षा करते-करते दिन भी गनीत हो गया और राथि भी अतीत हो गई । विरहिरणो प्रिय के वियोग मे अत्यन्त व्यर्ग है ।