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[कबीर की साखी
 

 

विरह जलाई मैं जलौ, जलती जलहरि जाउँ।
मों देख्याँ जलहरि जलै, सन्तौ कहाँ बुझाऊँ॥३८॥

सन्दर्भ—विरह का प्रभाव, क्षेत्र और स्वरूप व्यापक है, शिष्य ही नहीं, सद्गुरु भी विरह के प्रभाव से पीड़ित है।

भावार्थ—विरह से प्रदग्ध मैं सतगुरु के पास विरहाग्नि प्रशान्त करने के लिए गई। परन्तु मैंने देखा कि सतगुरु स्वतः विरह ज्वर से पीड़ित है। है सन्तों! अब बताओं कि इस विरहाग्नि को कहाँ शांत करूँ?

शब्दार्थ—जलहरि = जलधरि = जलधार—तालाब। देख्या = देख्या—देखा। बुझाऊँ—शान्त करूँ।

परबति परबति मैं फिर्या, नैन गँवाये रोइ।
सो बूटी पाँऊँ नहीं, जातै जीबनि होइ॥३९॥

सन्दर्भ—विरह के कारण स्थान-स्थान पर भटकता रहा पर विरह को प्रशान्त करने वाला परम तत्व न मिला।

भावार्थ—प्रियतम की खोज में एक पर्वत से दूसरे पर्वत, दूसरे से तीसरे पर्वत तक अर्थात् स्थान-स्थान पर भटकता रहा और प्रिय के वियोग में रो रोकर नैन खो दिए परन्तु वह तत्व न प्राप्त हुआ जिससे जीवन प्राप्त होता।

शब्दार्थ—परवति = पर्वत। फिरया = घूमा, भटका। नैन = नयन—नेक। गँवाये = खोये। जातै = जिससे। जीवनि = जीवन, जीवन शक्ति।

फाड़ि पुटोला धज करौं, कामलड़ी पहिराउँ।
जिहि जिहि भेषां हरि मिलैं, सोइ-सोइ भेष कराउँ॥४०॥

सन्दर्भ—प्रियतम की प्राप्ति के लिए समस्त बलिदान निःसार है।

भावार्थ—अपने रेशमी वस्त्रों को फाड कर फेंक दूँ और कमली धारण कर लूँ। जिस-जिस भैष से हरि मिल सके वही-वही भेष धारण कर लूँ।

शब्दार्थ—पुटोला—पटोरा, रेशमी वस्त्र। धज = धज्जी, टुकड़े-टुकड़े। कामलड़ी = कामली = कामरी = कम्मल। भेषा—भेष में।

नैन हमारे जलि गये, छिन-छिन लोडै तउज्झ।
नां तूँ मिलै न मैं खुसी, देसी वेदन भुज्झ॥४१॥

सन्दर्भ—प्रिय के दर्शनों के अभाव में प्रतीक्षा रत मेरे नेत्र प्रदग्ध रहे और अपार वेदना से पीड़ित रहा हूँ।