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विरह कौ अंग]
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भावार्थ—हे प्रिय! ये नेत्र आपकी प्रतीक्षा करते-करते प्रदग्ध हो उठे। न तेरे दर्शन प्राप्त होते हैं न प्रसन्नता प्राप्त होती है। मैं विरह वेदना से पीड़ित हूँ।

शब्दार्थ—छिन = क्षण। लोडै = प्रतीक्षा करें। तुज्झ = तुझ। वेदन = वेदना। मुज्झ = मुझे।

भेला पाया श्रम सौं, भौसागर के मांहि।
जे छाँड़ौं तौ डूबिहौं, गर्हौं त डसिये बाँह॥४२॥

सन्दर्भ—इस भव सागर में बड़े श्रम बड़े भाग्य से सतगुरु रूपी जहाज़ मिल गया।

भावार्थ—बड़े परिश्रम करने के अनन्तर भव सागर में सतगुरु रूपी जहाज़ मिल गया। अब यदि इसे छोड़ता हूँ तो भवसागर में डूब जाऊँगा और यदि इस जहाज़ को ग्रहण करता हूँ तो उसके शब्द रूप सर्प, भुवग मुझे डस लेंगे।

शब्दार्थ—भेला = वेडा। सौ = से। छाड़ौ = छोडू। गहो = ग्रहण करूँ।

रैणा दूर विछोहिया, रहु रे संषम झूरि।
देवलि देवलि धाहुड़ी, देसी ऊगे सूरि॥४३॥

सन्दर्भ—हे वियोगी धैर्य धारण कर। सूर्योदय होते ही पुनःप्रिय के दर्शन होंगे।

भावार्थ—हे कृश चक्रवाक। रात्रि ने तुझे प्रिय से वियुक्त कर दिये हैं। तू घर-घर चीत्कार करता फिरा। सूर्य के उदय होते ही पुनः प्रिय से समागम होगा।

शब्दार्थ—रेणा = रैण = रैन = रात्रि। विछोहिया = वियुक्त हुई। सषम = चक्रवाक। झूरि = कृश। देवलि = देवालय = मन्दिर = घर। धाहुड़ी = दहाड़ता = चीत्कार करता। देसी = देगा। ऊगे = उदय। सूरि= सूर्य।

सुखिया सब संसार है, खावै अरू सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरू रोवै॥४४॥

सन्दर्भ—चेतन प्राणी संसार को गति देखकर दुःखी रहता है।

भावार्थ—कबीर दास कहते हैं कि समस्त संसार खाता है, पीता है, सोता है और सुख पूर्वक जीवनयापन करता है। केवल मैं दुःखी हूँ और रोता हूँ।

शब्दार्थ—खावै = खात है। सोवे = सोता है। रोवै = रोता है।