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परचा कौ अंग]
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भावार्थ—भव सागर में ज्ञान की अग्नि लग गई और फलतः माया की सहायक तत्व विनष्ट हो गये। कबीर ने चेतन होकर देखा कि मछली शब्द रूपी वृक्ष पर आसीन है।

शब्दार्थ—समदर = समुद्र। कोइला = कोयल = काली। मंछी = मछली। रूपा = वृक्ष।

 

५. परचा कौ अंग

कबीर तेज अनंत का मानौं ऊगी सूरज सेखि।
पति सँगि जागी सुंदरी, कौतिग दीठा तेणि॥१॥

सन्दर्भ—ब्रह्म प्रकाश नारायाण ही, वह निर्मल आत्मा द्वारा ही अनुभव किया जा सकता है।

भावार्थ—ब्रह्म का तेज, प्रकाश मान स्वरूप अनन्त है। वह प्रकाश का समूह मानो सूर्य की श्रेणियाँ एक स्थान पर उदित हुई हो, आत्मा रूपी सुन्दरी ने जाग्रत होकर उस वैभव को देखा, प्रकाश नारायण के दर्शन किये।

शब्दार्थ—अनन्त = ब्रह्म। ऊगी = उगी = विकसित हुई। सूरज = सूर्य। सेणि = श्रेणी। कौतिग= कोतुक = आश्चर्य जनक वस्तु। तेणि = उनके द्वारा।

कौतिक दीठा देह विन, रवि खसि विना उजास।
साहिब सेवा माहिं है, बेपरवाही दास॥२॥

सन्दर्भ—प्रबुद्ध आत्मा ने निराकार ब्रह्म के दर्शन किए। ब्रह्म सेवा, अपनी द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।

भावार्थ—प्रबुद्ध आत्मा निराकार ब्रह्म के दर्शन किए वह ब्रह्म रवि एवं शशि के प्रकाश के अभाव में भी प्रकाश मान है। वह स्वयंम् प्रकाश है। प्रभु के दर्शन सेवा में रत सेवक को ही प्राप्त होते हैं।

शब्दार्थ—कौतिक = कौतुक = आश्चर्य, ब्रह्म। दीठा = देखा। देवषित = निर्गुण। उजास= उज्ज्वल बेपरवाही = निश्चित।

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उसमान।
कहिबे कूं सोभा नहीं देखया ही परबान॥३॥

भावार्थ—ब्रह्म अवर्णनीय स्पष्टनीय है।