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परचा को अंग]
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अंतरि कवल प्रक्रासिया, ब्रहा तहाँ होइ।
मन भवरा तहां लुबाधिया, जांरौगा जन कोइ॥ ७ ॥

संदार्भ— हृदय प्रदेश मे व्रह्म क वास है। मन भ्ंवरा वहा लुब्ध हो गया है।

भावार्थ— हृदय मे कमल प्रकशित हो गया और उसमे ब्रह्म का निवास है। मन रूपी भ्रमर उस पर लुब्ध हो गया। विरला ही साधक इस रहस्य हो जान सकेगा।

शब्दार्थ— अन्तरि = हृदय के अन्तर्गत। कवल = कमल = हृदय पद्म। प्रकाशिया = प्रकाशित हो गया। भवरा = भ्रमर।

सायर नाही सीप बिन, स्वांति ब्ँद भी नांहि।
कबीर मोती नीपजैं सुन्नि सिपर गढ मांहि॥ ८ ॥

सन्दर्भ— शून्य शिखर गढ मे निर्गुण ब्र्ह्म के दर्शन हुए।

भावार्थ— कबीर कह्ते है कि न सागर है, न सीप है न स्वाती का बूंद् है। फिर भी शून्य शिखर गढ मे निर्गुण ब्रह़्म रूपी मोती की उप्लब्धि हो रही है।

शब्दार्थ— सायर = सागर। स्वाति = स्वाती। नीप जै = उपजै। सुन्नि = शून्य।

घट मांहैं औघट लह्या, औघट माहैं घाट।
कहि कबीर परचा भया, गुरू दिखाई बाट॥ ९ ॥

सन्दर्भ— सतगुरु की कृपा से घट मे हो ब्रह़्म के दर्शन हो गए।

भावार्थ— कबीर कह्ते है कि सतगुरु की कृपा से, सतगुरु द्वारा प्रतिदिन मार्ग पर चलकर घट मे ही ब्र्ह़्म के दर्शन हुए और ब्रह्म मे ही अपनी स्थिति दृष्टि गत हुई।

शब्दार्थ— घत = शरीर। औघट = विचित्र् = ब्र्ह्म। बाट = मार्ग। परचा = परिचय।

सूर समांणां च्ंद् में दहूं किया घर एक।
मनफा च्य्ंता तय भया, पछू पूरवला लेख॥ १० ॥

सन्दर्भ— चन्द्रनाटो मे सूर्य नाटो ममाहिन हो गई, तब ब्रह्म के दर्शन हुए।

भावार्थ— जब चन्द्र नाटो मे सूर्य नाटो प्रर्यप्ट हो गई और बन गया तब मन की अभिन्नता और पूनर्जन्म का सेग पूर हुआ सूर्यास्त मुनुरि पूर्ण हुई।