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[कबीर की साखी
 

 

संदर्भ—आत्मा और परमात्मा उभय एकाकार हो गए।

भावार्थ—अच्छा ही हुआ जो भय मेरे अन्तस मे समुत्पन्न हो गया, उसके फलस्वरुप मैं सासारिकता से ऊपर होकर ईश्वरोन्मुख हो गया। आत्मा रुपी पाला घुलकर पानी बन गया और ब्रह्म रुपी जल मे मिलकर वह अभिन्न हो गया।

शब्दार्थ—जु=जो । पडया=समुत्प्न्न, आकर उपस्थित हो गया। कुलि=किनारे ।

चौहटै च्यंतामंणि चढ़ी,हाडी मारत हाथि।
मीरां मुझसॅू मिहर करि,इब मिलौ न काहु साथि।।१६।।

संदर्भ—हे ईश्वर अब मैं तुझसे मिलकर अभिन्न हो गया।

भावार्थ—जीवन रूपी चौराहे मे त्रिकुटी नामक स्थान पर जीवन रूपी चौसर के खेत मे पासा फेकते हुए,चिंतामणि हाथ मे लग गई। हे प्रभु !अब तुझे छोड़कर मैं किसी अन्य की अपेक्षा नही रखता हूँ।

शब्दार्थ—च्यंतामणि=चिंतामणि। चढ़ी=प्राप्त हुई।

पंषि उडानीं गगन कॅू,प्यंड रह्या परदेश।
पांणी पीया चंच बिन,भूलि गया यहु देश।।२०।।

संदर्भ—आत्मा ने निगुंण व्रहा के दर्शन प्राप्त किए।

भावार्थ—आत्मा रूपी पक्षो ब्रहाण्ड मे उड़ गई और शरीर इस परदेश मे पड़ा रह गया। वहां पर आत्मा रूपी पक्षी ने चोच के बिना जल पिया।अर्थात् निराकार ब्रह्म के दर्शन किए और इस प्रकार वह अपनी दशा,परिस्थिति को भूल गई।

शब्दार्थ—पंषि=पक्षी,आत्मा। प्यड=शरीर। चंच=चोच।

पंषि उडानीं गगन कूं,उड़ी चढ़ी असमान ।
जिहिं सर मंडल भेदिया,सो सर लागा कान।।२१।।

संदर्भ—आत्मा रूपी पक्षी ब्रह्माण्ड मे जाकर ब्रह्माकार हो गई।

भावार्थ—आत्मा रूपी पक्षी ब्रह्माण्ड मे प्रविष्ट होकर और आगे उड़ती गई जिस बाण ने हृदय मडल को आहत कर दिया था उस बाण के प्रति चित् को भावना और भी प्रगाढ़ हो गई।

शब्दार्थ—सर=बाण।

सुरति समांणी निरति मैं,निरति रही निरधार।
सुरति निरति परचा भया,तब खूले स्यंभ दुवार।।२२।।