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(३)

मिलता था वह तो था ही साथ ही उस क्षेत्र के सभी मन्दिर नष्ट करा दिए जाते थे। बात यहीं नहीं समाप्त हो जाती थी वरन् मन्दिरों के स्थान पर मसजिदों का निर्माण करा दिया जाता था।

संक्षेप में कबीर के युग की राजनीतिक परिस्थिति, अस्थिरता, विश्वासघात, धार्मिक संकीर्णता तथा अमानुषिक अत्याचारों की कथा है। राजनीतिक विद्रोह अशांति और प्रतिहिंसा की छाप सर्वत्र अंकित है। कबीर एक सहृदय व्यक्ति थे। इनके राजनीतिक प्रपंचों ने कबीर की संसार विषयक क्षणभंगुरता की भावना को और भी दृढ़ कर दिया। उन्होंने तत्कालीन शूर वीरों को सम्बोधित करके कहा कि तीर तोप से लड़ना शौर्य नहीं, शूर धर्म का निर्वाह वह व्यक्ति करता है जो माया के बन्धनों से मुक्त होकर आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर हो। तत्कालीन जनता की भौतिकता भी कबीर को पसन्द नहीं आई। वे तत्वदर्शी थे। जानते थे कि जो कुछ भी भौतिक है वह क्षणिक है और इसीलिए उन्होंने भौतिकता और माया से दूर रहने के लिए बार-बार सचेत किया। कबीर ने अपने युग में जनता की स्वार्थपरता और धनलिप्सा की भी बड़ी निन्दा की है। इन्होने उदार वृत्ति और सन्तोष धारण करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।

कबीर से पूर्व भारतवर्ष की राजनीतिक दशा पर ऊपर विचार हो चुका है। विगत पृष्ठों को देखने से प्रकट हो जाता है कि १२०० से १३०० ई॰ तक देश की दशा कितनी विषम बनी रही। हिन्दू समाज, हिन्दू धार्मिक परिस्थिति संस्कृति पर निरन्तर आक्रमण हो रहे थे। हिन्दू धर्म को नष्ट कर देने के लिए साम, दाम, दंड और भेद आदि सभी उपायों से प्रयत्न किया गया। हिन्दुओं की इस गम्भीर, विषम शोचनीय और नित्य ही परिवर्तनशील दशा में हिन्दुओं का धर्म संकट में पड़ चुका था। उनके राम जनता के हृदय और मस्तिष्क से विलग हो चले थे। परिस्थिति इस बात की द्योतक थी कि मूर्ति-उपासक कितने निर्बल, अशक्त और संकट में थे और दूसरी ओर मूर्ति-भजक कितने बलवान और कितने ऐश्वर्यवान् हैं। मूर्तिभंजको को सुख और ऐश्वर्य के पालने में झूलते हुए देख कर हिन्दुओं का मूर्ति-पूजा से विश्वास उठ रहा था। वे उसकी निःसारता स्पष्ट रूपेण समझ चुके थे। फलत महान् संघर्ष और क्रान्ति के इस युग में एक ऐसे धार्मिक आंदोलन की आवश्यकता थी जो देश के निवासियों को अन्धकार में प्रकाश दिखा सके। निराशा में आशा का संचार कर सके। इस आवश्यकता की पूर्ति वैष्णव आंदोलन ने की। इस आन्दोलन में परब्रह्म के लोक रक्षक लोर-पालक स्वरूप की विष्णु के रूप में प्रतिष्ठा करके, उनकी सरल भक्ति का मार्ग निराश हृदयों को प्रदर्शित किया गया।