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शब्दार्थ—बासुरि = दित। निध्य = निधि।

तन भीतरि मन मानियाँ, बाहरि कहा न जाइ।
ज्वाला तैं फिर जल भया, बुझी बलंती लाइ॥३१॥

सन्दर्भ—अब मन अन्तर्मुखी हो गया।

भावार्थ—हृदय में ही मन मुग्ध होकर सीमित हो गया। अब यह बाहर कही नहीं जाता है। मोह की ज्वाला शान्त हो गई और अग्नि पीतल हो गई।

शब्दार्थ—बाहरि = बाहर।

तत पाया तन बीसर्या, जब मन घरिया ध्यान।
तपनि गई सीतल भया, जब सुनि किया असनान॥३२॥

सन्दर्भ—धैर्यं के जाग्रत होते ही तत्व प्राप्त हो गया।

भावार्थ—जब से मन में प्रभु का ध्यान हुआ, तब से मन में शान्ति स्थापित हुई। ब्रह्म तत्व की प्राप्ति हुई और तन की दशाएंँ भूल गया। समस्त ताप नष्ट हो गए और शून्य सरोवर में स्नान किया।

शब्दार्थ—तत = तत्व।

जिनि पाया तिनि सू गह गह्या रसनां लागी स्वादि।
रतन निराला पाईया, जगत ढंडौल्या बादि॥३३॥

संदर्भ—संसार सागर में भटकते-भटकते हरि रूपी हीरा प्राप्त हो गया।

भावार्थ—जिन्होंने खोज की उन्हें हरि रूपी हीरा मिला और जिसने पाया उसे भली-भाँति ग्रहण किया। मन में जिह्वा में रामनाम रूपी स्वाद लग गया। मैंने तो अद्भुत रत्न प्राप्त कर लिया अब संसार में कौन भटकता फिरे।

शब्दार्थ—मूगह = अच्छी तरह। गह्या = पकड़ा। ढंदौल्या = खोजा।

कबीर दिल स्यावति भया, पाया फल संम्रथ्य।
सायर मांहि ढंढोलतां, हीरै पडि गया हथ्य॥३४॥

संदर्भ—संसार सागर में हरि हीरा प्राप्त हो गया ।

भावार्थ जब से मन में धैर्य और शान्ति स्थापित हो गई तब में हरि रूपी हीरा सम्प्राप्त हो गया। संसार सागर में खोजते खोजते हरि रूपी हीरा प्राप्त हो गया ।

फ॰ सा॰ फा॰—९