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[कबीर की साखी
 


कबीर कवल प्रकासिया, ऊग्या निर्मल सूर।
निस अंधियारी मिटि गई, बागे अनहद नूर॥४३॥

सन्दर्भ—ज्ञान के उदय होते ही हृदय कमल विकसित हो गया।

भावार्थ—जब से निर्मल सूर्य रूपी ब्रह्म का प्रकाश प्राप्त हुआ तब से हृदय कमल प्रकाशित हो गया। समस्त वासनाओं का अन्धकार मिट गया और अनहद नाद की तुरही बजने लगी।

शब्दार्थ—ऊग्या = उदित हुआ।

अनहद बाजै नीझर झरै, उपजै ब्रह्म गियान।
आबगति अंतरि प्रगटै लागै प्रेम धियान॥४४॥

सन्दर्भ—प्रेम पूर्वक ध्यान लगाने से ब्रह्म प्रकट होता है।

भावार्थ—प्रेम पूर्वक ध्यान लगाने से अविगत ब्रह्म को अनुभूति होती है। अनहृदनाद प्रतिश्रुति होता है और अनहद का झरना बहने लगता है।

शब्दार्थ—नीझर = निर्झर। गियान = ग्यान। आवगति = अनिर्वचनीय।

आकासे मुखि औंधा कुवाँ, पाताले पनिहारि।
ताका पांणीं को हंसा पीवै, बिरला आदि बिचारि॥४५॥

सन्दर्भ—शून्य शिखर गढ़ का सुभग जल हंसात्मा ही पान करती है।

भावार्थ—आकाश में निम्न सुख हुआ है नीचे आत्मारूपी पनिहारी जल जल को प्राप्त करने के लिए आकांक्षी है। इस कुएँ का जल कोई विरली शुद्धता ही ही ग्रहण करती है।

शब्दार्थ—आकासे = आकाश में ब्रह्म रन्ध्र में। औधा = निम्नाभिमुख। पनिहारि = पनिहारी।

सिबसकती दिसि कौण जु जोवै, पछिम दिसा उठै धूरि।
जल मैं स्यंघ जु घर करै, मछली चढ़ै खजूरि॥४६॥

सन्दर्भ—अनहद शब्द के सहारे आत्मा ब्रह्म में लीन हो जाती है।

भावार्थ—शिव और शक्ति को किस दिशा में देखा जा सकता है वह सर्वव्यापी है। जो दिशा विशेष में देखने की चेष्टा करेगा उसके पीछे धूल उड़ने लगेगी। आत्मारूपी मछली अनहदनाद के सहारे ब्रह्म में लीन होगी, शिव और शक्ति की अनुभूति करना उतना ही कठिन है जितना मछली का ख़जूर पर चढ़ना अथवा सिंह का जल में प्रवेश करना।