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रस कौ अंग]
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शब्दार्थ—सकती=शक्ति। स्यंघ=सिंह। मछली=आत्मा।

अंमृत बरिसै हीरा निपजै, घंटा पढ़ै टकसाल।
कबीर जुलाहा भया पारपू, अनभै उतर्‌या पार॥४७॥

सन्दर्भ—ब्रह्म निन्द होते ही दिव्य अनुभूति प्राप्त हो गई।

भावार्थ—ब्रह्म निन्द रूपी अमृत की वर्षा हो रही है और प्रभु दर्शन रूपी हीरा उत्पन्न हो रहा है। अनहद शब्द प्रति श्रुद हो रहा है। कबीर जुलाहा निर्भय होकर इस संसार सागर से पार उतर गया।

शब्दार्थ—बरिसै=बरसत है घटा पड़ै टकसाल=अनहद नाद प्रतिश्रुत हो रहा है।

ममिता मेरा क्या करै, प्रेम उघाड़ीं पौलि।
दरसन भया दयाल का, सूल भई सुख सौड़ि॥४८॥

सन्दर्भ—ब्रह्मानुभूति प्राप्त हो जाने के बाद माया मोह के बन्धन विछिन्न हो गये।

भावार्थ—माया मेरा क्या कर लेंगी अब तो प्रेम का द्वार उन्मुक्त हो गया अब तो दयालु ब्रह्म के दर्शन हो गए, अब दुख भी सुख प्रतीत होने लगे।

शब्दार्थ—ममिता=ममता। उघाड़ी=खोल दिया। पौलि=द्वार।

 

६. रस कौ अंग

 

कबीर हरि रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि।
पाका कलस कुँभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि॥१॥

संदर्भ—जीवात्मा प्रभु-भक्ति के रंग में रंगकर जीवन्मुक्त हो जाती है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं मैं ईश्वर को भक्ति का रस इतना अधिक पिया है कि सांसारिक कठिनाइयों से उत्पन्न थकावट बिल्कुल समाप्त हो गई है किंचितमात्र भी बाकी नहीं रही। जिस प्रकार कुम्हार के द्वारा पकाया हुआ घड़ा पुनः चाक पर नहीं चढ़ाया जाता है उसी प्रकार हरि-भक्ति-रस का पान करने के बाद आत्मा को इस संसार में नहीं भटकना पड़ता।

शब्दार्थ—थाकि=थकान। पाका=पक्का। कलस=कलश=घड़ा।