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[कबीर की साखी
 


भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने संसार के सभी रसों का रसास्वादन करके देख लिया है किंतु हरि इसके समान और कोई रस नही है। यदि इस हरि रस का एक तिल मात्र अंश भी शरीर में व्याप्त हो जाय तो संपूर्ण शरीर पाप मुक्त होकर कंचन के समान शुद्ध हो जाय।

शब्दार्थ—रसाहण = रसास्वादन।

 

७. लांबिकौ अंग

कया कमंडल भरि लिया, उज्जल निर्मल नीर।
तन मन जोबन भरि पिया, प्यास न मिटी शरीर॥१॥

सन्दर्भ—ज्ञान एवं भक्ति का उज्जवल द्वारा भी शरीर की तृष्णा शान्त नहीं होती।

भावार्थ - ज्ञान एवं भक्ति का उज्ज्वल एवं निर्मल नीर शरीर रूपी कमंडल में भर लिया। शरीर एवं मन की पूर्ण शक्ति लगाकर जीवन के सुन्दरतम समय यौवनकाल में इसका पान किया किन्तु फिर भी इसकी प्यास शांत नही हुई।

शब्दार्थ—क्या = काया = शरीर।

मन उलट्या, दरिया मिल्या, लागा मलिमलि न्हांन।
थाहत थान न आबई, तूँ पूरा रहिमान॥२॥

सन्दर्भ जीवात्मा को प्रभु-प्रेम-सागर की थाह नही मिल पाती है।

भावार्थ—मन सांसारिक झंझटों से हटकर प्रभु प्रेम रूपी समुद्र में जाकर मिल गया और वहाँ मल-मल कर स्नान करने लगा। हे प्रभु! आप अत्यन्त दयालु हैं बहुत प्रयत्न करने पर भी आपकी वास्तविक थाह नही मिलती है।

शब्दार्थ—रहिमान = दयालु।

हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हेराइ।
बूँद समानी समद मैं सोकत हेरी जाइ॥३॥

सन्दर्भ—आत्मा का जब परमात्मा से एकीकरण हो जाता है तो उसको ढूँढ़ पाना कठिन होता है।

भावार्थ—कबीर की आत्मा परमात्मा को खोजते-खोजते उसी में लीन हों गई। आत्मा और परमात्मा का मेल हो गया। जो बूँद समुद्र में जाकर मिल जाती