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११. निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग

कबीर प्रीतड़ी तौ तुझसौं, बहु गुण याले कन्त।
जे हॅसि बोलौ और सौं, तौ नील रॅगाऊॅ दन्त॥१॥

सन्दर्भ―साधक केवल परमात्मा से प्रेम करता है।

भावार्थ―हे अनन्त गुणो वाले प्रियतम(ब्रह्मा)। कबीर का एकमात्र तुझ से ही प्रेम है। यदि मैं तुझे छोडकर अन्य किसी से हँस बोलकर प्रेम करुँ तो वह मुँह पर स्याही लगाकर मुँह को कलकित करने के समान है।

शब्दार्थ-प्रीतड़ी=प्रेम। गुणिया ले=गुणवान्।

नैनां अन्तर आवतूॅ, ज्यूॅहौ नैन भैपेउ।
नाँ हौं देखौं और कूॅ, नांतुझ देखन देउॅ॥२॥

सन्दर्भ―प्रेम की अनन्यावस्था को दिखाया गाया है। भक्त प्रेम मे विभोर होकर अपने प्रियतम को ही देखना चाहता है।

भावार्थ―हे प्रियतम! तुम नेत्रो के अन्दर आजाओ और मैं तुरन्त नेत्रो को मूँदलूँ। जिससे न तो मैं ही तुम्हारे अतिरिक्त किसी अन्य को देख सकूं और न तुम को ही अपने अतिरिक्त किसी अन्य को देखने दूँ। तुम् मुजे देखो और मैं तुमे देखूँ।

सब्दार्थ―अंतरि=अन्दर। झंपेड=मूँदलूँगा।

मेरा तुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै मेरा॥३॥

सन्दर्भ―संसार की सभी वस्तुँ परमात्मा की है। मापक जो भी परन्तु परमात्मा को समर्पित करता है वह उसी की ही वस्तु उसकी समर्पित करता है।

भावार्थ―मेरे पास जो कुछ भी है हे परमात्मा! यह तेरा ही है उसमें मेरा कुछ भी नही है। फिर आपकी ही वस्तु आप को सौंपने मे मेरा क्या लगता है।

कबीर रैख रचंदूर की, काजल दिया न जाई।
नैन रमइया रमि सदा, दुजा कहाँ समाइ॥