सन्दर्भ―जीव को सासारिक आशाओं के प्राप्त होने पर भी शांति प्राप्ति नही होती है।
भावार्थ―जिसको एक परमात्मा की आशा है उसके लिए अन्य आशाएँ व्यर्थ हैं निराशामात्र है क्योकि उसी एक से सबकी प्राप्ति होती है। सांसारिक कामनाओ का अन्त तो निराशाएँ होता है। जो व्यक्ति ईश्वर की आशा को छोड़ कर अन्य की आशा करते हैं वह तो उन लोगो के समान है। जो पानी में रहकर भी प्यासे मरते हैं।
शब्दार्थ―पाणी=जल।
जें मन लागै एक सूँ, तौ निरबाल्या जाइ।
तूरा दुइ मुखि बाजरणँ, न्याइ तमाचे खाइ॥१२॥
सन्दर्भ―जीव को अकेले परमात्मा के प्रेम मे मन को लगा देना चाहिए।
भावार्थ―यदि जीव का मन परमात्मा पर ही आसक्त हो जाय तो उसका निर्वाह हो जायगा और यदिवह ईश्वर के अतिरिक्त अन्य का ध्यान करता है तो उसे सांसारिक दुख उसी प्रकार सहन करने पड़ेगे जिस प्रकार तुरही को दोमुखों से बजने के कारण अकारण ही हाथ के प्रहार सहन करने पड़ते हैं।
शव्दार्थ―निरवाल्या=निर्वाह हो जाएगा। तूरा=तुरही। न्याइ=उचित।बाजणाँ=बजाने से।
कबीर कलिजुग आइकर, कीये बहुतज मीत।
जिन दिल बॅधी एक सूँ, ते सुखु सोवै नचींत॥१३॥
सन्दर्भ―जीव यदि परमात्मा को मित्र बना ले तो वह निश्चित हो सकता है।
भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि इस कलियुग मे आकर मनुष्य अनेको मित्रो को बनाता है किन्तु वे सभी दुख देने वाले होते हैं परन्तु यदि एक परमात्मा को मित्र बना लिया जाय तो जीव जीवन पर्यंत निश्चिन्त होकर सो सकता है।
शब्दार्थ―बहुतज=बहुत से। नचीत=निश्चिन्त।
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाँउॅ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे वित जाँउॅ॥१४॥
सन्दर्भ―भवत को भगवान जिधर खीचता है वह उधर ही चला जाता है।