पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
निहकर्मी पतिव्रता कौ अंग]
[१४५
 

 

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि मैं राम का कुत्ता हूँ और मेरा नाम मुतिया (मुक्त) है मेरे गले में राम नाम की रस्सी पड़ी हुई है उस रस्सी को पड़ कर मेरे स्वामी राम जिधर मुझे घुमाते हैं मैं उधर हो घूम जाता हूँ।

विशेष―रूपक अलंकार।

शब्दार्थ―कूता=कुत्ता। जेवडी=जेवरी=रस्सी।

तो तो करै त बाहुड़ों, दुरि दुरि करै तो जाउॅ।
ज्यूॅ हरि राखै त्यूॅ रहौं, जो देवै सो खाउँ॥१५॥

सन्दर्भ―भक्त अपने सारे क्रिया कलाप ईश्वर की इच्छा पर ही करता है।

भावार्थ―यदि ईश्वर मुझ कुते को तू-तू करके बुलाते हैं तो मैं तुरन्त हो उनके समीप पहुँच जाता हूँ और यदि दुरदुरा देते हैं तो मैं दूर चला जाता हूँ। इस प्रकार में राम की इच्छा पर ही रहता हूँ। वह जो कुछ खाने को दे देते हैं वही खा लेता हूँ,

शब्दार्थ―वाहुडो=नजदीक।

मन प्रतीत का प्रेम रस, नाँ इस तन मैं ढंग।
क्या जाणौ उस पीव सू, कैसे रहसी रंग॥१६॥

संदर्भ―जीवात्मा को चिन्ता है कि वह प्रभु-मिलन के आचार-व्यवहार तक से भी परिचत नहीं है फिर मिलन कैसे होगी।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि मेरा मन न तो ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास रखता है और न प्रेम रस से हो परिपूर्ण है और शरीर भी उसके मिलन के लिए उपयुक्त नहीं है फिर समझ में नहीं आता कि राम्र-रंग के खेलो मे उत्त ईश्वर के साथ कैने प्रवृति होगो।

उस संम्रथ का दाश हौं, कदे न होइ अकाज।
पतिव्रता नॉगी रहे, तो उस ही पुरिम कौ लाज॥१७॥

संदर्भ―भक्ति पर यदि आपत्ति आयेगी तो ईश्वर के लिए लज्जा का विषय है।

भावार्थ—मैं उस समय पुरुष परमात्मा का सेवक हैं जो सर्वपक्तिमान है। इस कारण मेरा किसी भी प्रकार अनर्थ नहीं हो सकता है जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री के नयन रहने पर उसके पति को ही लज्जा आती है उसी प्रकार मेरे होने में भी परमात्मा के लिए ही लज्जा का विषय है।

प० मा० फा०――१०