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[कबीर की साखी
 

शब्दार्थ—सम्रय=सामथ्यँवान ब्रह्म। कदे=कभी भी।

धरि परमेसुर पाहुणां, सुणौं सनेही दास।
षटरस भोजन भगति करि ज्यूॅ कदेन छाँड़ै पास॥१८॥

संदर्भ―ईश्वर का निवास हृदय में है उसकी सेवा भक्ति पूर्वक करनी चाहिए।

भावार्थ―कबीर दास जो कहते हैं कि है प्रेमो भक्तो। ध्यान पूर्वक सुनो इस हृदय रूपी घर मे प्रभुरूपी अतिथि पधारे हैं। उसकी सेवा मे भक्ति रूपी षट् रस व्यंजन प्रस्तुत करो ता कि वे प्रसन्न हो कर कभी भी तुम्हारा साथ न छोड़े। सदैव तुम्हारे साथ रहे।

विशेष―रूपक अलंकार।

शब्दार्थ―घरि=घर। पाहुणाँ=अतिथि।

 

 

१२. चितावणी कौ अंग

कबीर नौबति अपणीं, दिन दस लेहु बजाइ।
ए पुर पटन ए गली, बहुरि न देखौ आइ॥१॥

संदर्भ―शरीर क्षण भंगुर है। वैभव थोडे दिन का ही है अंत मे शरीर के साथ वह भी नष्ट हो जायगा।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि इस क्षण भंगुर संसार में अपने वैभव का प्रदर्शन थोड़े ही दिन किया जा सकता है। फिर काल जब मृत्यु के मुख्य मे शरीर को सुला देता है तो नगर, बाजार गली कही भी इसके दर्शन नही हो सकेंगे।

शब्दार्थ―चितावरणी=चेतावनी। नौबत=नगाडा।

जिनके नौवति वाजती, मैंगल बॅधते बारि।
एकै हरि के नावै विन, गए जन्म सब हारि॥२॥