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(५)

अनादि शक्तिको द्वैत नहीं सिद्ध कर सकता है। इस प्रयत्न से कबीर ने दोनों धर्माबलम्बियों के हृदयस्थ भेद भाव की संकीर्णता दूर करने का प्रयत्न किया। तत्कालीन जनता में व्याप्त असंतोष तथा प्रतिहिंसा की प्रवृत्ति के विरुद्ध भी कबीर ने सन्तोष और क्षमा का उपदेश दिया। उन्होंने क्षमावान् को परब्रह्म की रूप बताया। तत्कालीन यवनों की हिंसा प्रधान प्रवृत्ति का विरोध करते हुए कबीर ने जनता को अहिंसा और दया का उपदेश दिया। जब सभी एक ही 'साँई' की सन्तान हैं तो किस पर दया की जाय और किस पर निर्दयता। विजेता वर्ग के अत्याचारों से उत्पीड़ित हिन्दू जनता को भी कबीर ने धैर्य रखने का उपदेश दिया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा 'धीरे -धीरे मना धीरे सब कुछ होय।' इसी प्रकार कबीर ने अपने समकालीन समाज को उदारता की भी उपयोगिता बताई। कबीर ने जनता के लोभ, क्रोध, मोह, कपट तृष्णा आदि विषयों पर विचार प्रकट किये हैं। वास्तव में कबीर समाज को परिष्कृति और दोषरहित रूप में देखना चाहते थे।

कबीर से पूर्व और कबीर के युग में नारी का जो चित्र हमें साहित्य, धर्म तथा इतिहास में मिलता है वह अत्यन्त विवशता का चित्र है। तत्कालीन नारी जनता की भोग-लिप्सा देख कर कबीरदास ने बारम्बार भोग-विलास से दूर रहने का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि पंडित और मूर्ख दोनों 'काम' में लिप्त'[१] हैं। काम में लिप्त मनुष्य कभी भी 'हरि नाम' की साधना नहीं कर सकता है जिस प्रकार सूर्य और अवकार एक स्थान पर नही एकत्रित हो सकते[२] है। इस प्रकार मानव की भोग-लिपसा और कामुकता की बड़ी आलोचना की। अपनी पतिव्रता स्त्री का परित्याग कर परायी स्त्री से प्रेम करने वालों का सम्बोधित कर कबीर कहते हैं कि 'दूसरे की स्त्री, चाहे वह सोने ही की क्यों न हो, उससे दूर रहना चाहिए, नहीं तो रावण के समान विनाश अवश्यम्भावी है।[३] इसी प्रकार बढ़े प्रभावशाली शब्दों में कबीर ने इस प्रवृत्ति की आलोचना की। कबीर के युग में नारी भोग-विलास को वस्तु बन गई


  1. काम क्रोध मद लोभ की जब लग तट में खान।
    कहाँ मूर्ख कह पंडिता दोनों एक समान।

  2. जहाँ काम तहं नाम नहिं जहाँ नाम नहिं काम‌।
    दोनों कबहूँ ना मिलै रवि रजनी एक ठाम॥ कबीर ब॰ पृ॰ ४८

  3. परनारी पैनी छुरी विरला वाचै कोय।
    ना वहि पेट सचारिये सर्व सीन की होय॥
    रावन के दस सिर गए पर नारी के संग। कबीर ग्र॰, पृ॰ ५५, ५६