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चितावणी कौ अंग]
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भरा हो जाता है और फिर वह ठूंठ का ठूंठ ही रह जाता है। ठीक उसी प्रकार यह जीवन भी थोड़े दिनों तक आभा बिखेर कर नष्ट हो जाता है।

शब्दार्थ—खंखर = नष्ट हो जाते हैं।

कबीर कहा गरबियौ, देही देखि सुरंग।
बछड़ियाँ मिलिबौ नहीं, ज्यूँ कांचली भुवंग॥९॥

संदर्भ—शरीर को छोड़ने के बाद आत्मा उसमें प्रविष्ट नहीं होती इसलिए जीव को गर्व नहीं करना चाहिए।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि सुन्दर शरीर को पाकर-देखकर उस पर गर्व नहीं करना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार सर्प केचुली को छोड़ने के बाद पुनः उसे नहीं धारण करता है उसी प्रकार आत्मा भी इस शरीर को छोड़ देने के बाद फिर उसमें नहीं प्रविष्ट होती है।

शब्दार्थ—सुरंग = सुन्दर। वीछड़िया = वियुक्त होने पर।

कबीर कहा गरबियौ, ऊँचे देखि अवास।
काल्हि परयू म्वै लेटणां, ऊपर जामें घास॥१०॥

संदर्भ—सांसारिक ऐश्वर्य पर गर्व नहीं करना चाहिए।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं को देखकर उस पर गर्व नही करना चाहिए। जीव यह नहीं जानता कि शीघ्र ही उसे कब्र में लेटना पड़ेगा और कब्र के ऊपर घास उग आएगी तेरा सारा वैभव नष्ट हो जायेगा।

शब्दार्थ—प्रवास = घर। म्बै = भू = पृथ्वी पर।

कबीर कहा गरबियों, चाँम पलेटे हड्ड।
हैं वर ऊपर छत्र सिरि, ते भी देवा खड्ड॥११॥

संदर्भ—जीवन की नश्वरता का संकेत है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि चर्म से ढंकी हुई हड्डियों के सौन्दर्य पर गर्व करना ठीक नहीं है। जो लोग श्रेष्ठ पीढ़ी पर बैठकर और सिर पर छत्र धारण कर चलते हैं वे भी एक दिन कब्र में चले जाते हैं।

शब्दार्थ— है वर (हव + यर) श्रेष्ठ घड़ा देवा = दिए जायेंगे।

कबीर कहा गरवियौं, काल गहै पर फेस।
ना जाणौं कहाँ मारिसी कै घारै कै परदेस॥१२॥