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[कबीर की साखी
 

शब्दार्थ—प्रोतिड़ो=प्रेम। कबीर मन्दिर लाष का, जड़िया हीरै लालि॥ दिवस चारि का पेषणां, विनस जाइगा काल्हि॥१६॥

सन्दर्भ―शरीर की साज सज्जा चन्द दिनो की है उसके बाद यह नष्ट हो जायेगा।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि यह शरीर रूपी मंदिर लाख का बना हुआ है इसमे हीरे और लाल जड़े हुए हैं यह देखने मे बहुत आकर्षक है किन्तु इसका यह आकर्षण शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा और यह (पाण्डवो के) लाक्षा गृह के के समान जलकर नष्ट हो जाएगा।

शव्दार्थ―लाष=लाक्षा, लांख।

कबीर धूलि सकेलि करि, पुड़ी ज बाँधी एह।
दिवस चारि का पेषणां अन्ति षहे की षहे॥२०॥

सन्दर्भ―रूपक के द्वारा शरीर की क्षण भंगुरता के प्रति सकेत है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि यह मानव शरीर धूल को इकट्ठा करके पुडिया के समान बाँध दिया गया है। इसकी साज-सज्जा कुछ ही दिनो की है और अन्त मे यह जिस मिट्टी से बना है उसी मिट्टी के रूप में परिवर्तित हो जाएगा।

शब्दार्थ―सकेलि=एकत्रित कर। पुडी=पुडिया षहे=धूल।

कबीर जे घन्घै तौ घूलि, बिन घघै घूलै नहीं।
तैं नर बिनहे मूलि, जिनि, घंघै मै ध्याया नहीं॥२१॥

सन्दर्भ–प्रभु प्राप्ति संसार मे रहकर ही सम्भव है।

भावार्थ―कबीर का कहना है कि जो मनुष्य इस संसार मे सत्कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं उनकी आत्मा स्वच्छ हो जाती है क्योकि बिना कर्मों के आत्मा स्वच्छ नहीं हो सकती। वे मनुष्य तो जाते ही नष्ट हो गये जो इस संसार मे कर्मों मे वृत्त होते हुए ईश्वर का स्मरण नहीं करते।

शव्दार्थ―घघै=कर्म। घूलि=घुलना। विन=नष्ट हो गये।

कबीर सुपनै रैनि कै, उघड़ि आए नैन।
जीव पड्या बहु लूटि मैं, जागै तो लैंण नदैण॥२२॥