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चितावणी कौ अउग]
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सन्दर्भ—अज्ञान के कारण ही जीव माया के भ्रम में पड़ा रहता है किन्तु ज्ञान रूपी जागृति होने पर वह माया के बन्धन से मुक्त हो जाता है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि जीवात्मा के अज्ञान रूपी रात्रि में सोते-सोते सहसा नेत्र खुल गये। सुप्तावस्था में वह नाना प्रकार के लेन देन में पड़ा हुआ था और जागने हो (ज्ञान प्राप्त होते ही) यह संसार के लेन देन से मुक्त हो गया।

कबीर सुपनै रैनिकै, पारस जीय में छेक।
जे सोऊँ तौ दोइ जणां, जे जागू तौ एक॥२३॥

सन्दर्भ—ब्रह्म और जीव का भेद माया के कारण ही होता है। ज्ञान प्राप्त हो जाने पर यह भेद समाप्त जो जाता है।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि अज्ञान रूपी रात्रि में माया के स्वप्न देखने के कारण पारस्त्ररूप ब्रह्म और जीव में अन्तर स्थापित हो गया। यही कारण है कि अज्ञान की सुप्तावस्थायें मुझमें और परमात्मा में भेद हो जाता है और ज्ञान की जागृता वस्था में कोई भेद नहीं रहता एकरूपता स्थापित हो जाती है।

शब्दार्थ—छेक = भेद।

कबीर इस संसार में, घणें मनिष मत हीण।
राम नांम जांणैं नहीं आया टापा दीन॥२४॥

सन्दर्भ—ढोगियों और तिलकधारियों के प्रति व्यंग्य है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में अनेकों मनुष्य बुद्धिहीन है वह राम नाम के वास्तविक तत्व को न जान कर तिलक आदि लगाकर ही ईश्वर भक्त बनना चाहते हैं। संसार को धोखा देना चाहते है।"

शब्दार्थ—घणे = अत्यधिक। टापा = झासा देना, धोखा देना।

कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहेंगे जाइ।
इत के भये न उतके, चाले मूल गँवार॥२॥५

सन्दर्भ—जीव दम संसार में आकर परलोक सुधारने के कर्म कम करता है।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते है कि हमने इस संसार में आकर आत्मा की मुक्ति के लिए कौन-कौन से कर्म किए हैं जिनको कि मरने के बाद ईश्वर के अमृत्व