पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५४]
[कबीर की साखी
 

  वतलायेंगे। हमने न तो ऐसे कर्म किये हैं जिनसे इम लोक का जीवन सुधरता और न ऐसे सत्कर्म किए हैं कि परलोक का मार्ग हो सुधरता। अतः हम तो कही के न हुए जो पवित्र आत्मा परमात्मा से प्राप्त हुई थी वह भी गँवा बैठे।

आया अण आया भया, जे बहुरता संसार।
पड़्या भुलांवां गाफिला, गये कुबधी हारि॥२६॥

सन्दर्भ—जो व्यक्ति संसार मे आकर माया के आकर्षण मे ही पड़े रहते हैं उनका जीवन व्यर्थं हो जाता है।

भावार्थ―इस संसार मे आकर जो व्यक्ति नाना प्रकार के सासारिक आकर्षणो मे आकर पड़ जाते हैं वह संसार मे आकर भी न आने के समान मृत तुल्य है। वह भ्रम मे पड़ा हुआ बेहोश है और दुष्ट बुद्धि पराजित हो चुके हैं।

शव्दार्थ―अण आया=न आने के समान। भुलांवा=भ्रम मे। कुवुषी =बुरी बुद्धि।

कबीर हरि की भगति बिन, धिग जीवरण संसार।
धुँवा केरा धौलहर, जात न लागै बार॥२७॥

सन्दर्भ―प्रभु भक्ति के बिना जीवन भारण व्यर्थ है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर भक्ति के बिना इस संसार मे जीवित रहना घृणा स्पद है। मनुष्य को प्रभु भक्ति करनी ही चाहिए क्योंकि यह शरीर धुए के महल के समान हैं जिसके बिगड़ने मे तनिक भी देर नही लगती है।

विशेष― (१) उपमा अलंकार
(२) ‘धुआँ कैसे धौलहर देखि तू न भुलिरे।’
विनय पत्रिका मे तुलसी ने भी इसका प्रयोग किया है।

शव्दार्थ―घ्रिग=घिषकार। घौलहर= महल। जात=नष्ट होते |

जिहि हरि की चोरी करी, गये राम गुण भूलि।
ते बिधना बागुल रचे, रहे अरघ मुखि भूलि॥२८॥

सन्दर्भ―प्रभु भक्ति के बिना जीवन व्यर्थं होता है।

भावार्थ―जिन मनुष्यों ने इस संसार मे आकर ब्रह्म के प्रति भी विश्वासघात किया है उसके गुरगो को भूल जाते हैं। उन्हों को विधाता बगुले का जन्म दे देता है जो लज्जावध अपना मुख नीचा किये खडे रहते है।