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चितावणी कौ अंग]
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माटी मलणि कुंभार की घणी सहै सिरि लात।
इहि औसरि चेत्या नहीं, चूका अब की घात॥२९॥

सन्दर्भ—जो मनुष्य इस संसार में आकर आवागमन के चक्र से छूटने के लिए प्रयास नहीं करता वह फिर मुक्त नहीं हो पाता है।

भावार्थ—जिस प्रकार कुम्हार की मिट्टी को मलते समय अनेकों लातें खानी पड़ती है ठीक उसी प्रकार मनुष्य को भी नाना प्रकार को यातनायें भोगनी पढ़ती हैं इस लिए है जीव यदि तू इस जन्म में सावधान नहीं हुआ तो पुनः इस प्रकार का स्वर्णिम अवसर मिलना मुश्किल है।

इहि औसरि चेत्या नहीं, पसु ज्यूं पाली देह ।
राम नाम जांण्यां नहीं, अंति पड़ी मुख पेह॥३०॥

सन्दर्भ—मनुष्य योनि में जो अपने को मुक्त न कर सका उसका जीवन ही नष्ट हो जाता है।

भावार्थ—इस मनुष्य योनि में जिस व्यक्ति को चेत नहीं आया, परलोक को सुधारने की चेष्टा नहीं की और पशुओं के समान देह को ही पालता रहा अर्थात् पाशविक प्रवृत्तियो में ही लगा रहा। जीवन भर राम के महत्व को न पहिचान पाने के कारण अन्त समय में तुझे नष्ट होकर मिट्टी में मिल जाना पढ़ेगा।

शब्दार्थ—पेह = मिट्टी, धूल।

राम नांम जांण्यों नहीं, लागी मोटी पोड़ि।
काया हाँडी काठकी, ना ऊँ चढ़ै बहोड़ि॥३१॥

सन्दर्भ—मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता अतः प्रभु-भक्ति इसी जीवन में कर लेनी चाहिए।

भावार्थ—जीवन भर राम नाम के महत्व को नहीं जाना। सांसारिक प्रपंचो की मोटी तह जमा हो गई जिस प्रकार काठ की हाँडी एक ही बार चढ़ाई जा सकती है दुबारा वह चढ़ाने योग्य नहीं रह जाती है उसी प्रकार यह शरीर भी दुबारा प्राप्त नहीं हो सकता है।

शब्दार्थ—पोड़ि = दोष। बहोड़ि = बहिरंग = पुनः, दूसरी बार।

राम नाम जांण्यां नहीं, बात विनंठा मूल।
परत ढूंढ़ा ही हारिया परति पड़ी मुख धूलि॥३२॥