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थी। इसलिए उन्होंने नारी के भोगमय स्वरूप की बड़ी निन्दा की है। आध्यात्मिक पथ से भ्रष्ट करने के कारण कबीर ने स्त्री को सर्पिणी के समान भयंकर[१] व्याघ्र के समान घातक[२] तथा भक्ति एवं मुक्ति से पतित करने वाली[३] कहा है। स्थान-स्थान पर कबीर ने नारी को माया आदि शब्दों से भी सम्बोधित किया है। परन्तु साथ ही कबीर ने नारी के कल्याणकारी रूप का समर्थन भी किया है। कबीर ने सती स्त्री की प्रशंसा की[४] है कारण कि उसका हृदय और मन पवित्र रहता है। यह पति के साथ अपनी जीवन लीला समाप्त कर देती है। इसी प्रकार कबीर ने पतिव्रता नारी का भी बड़ा समर्थन किया है। कबीर के लिए मैली कुचैली पतिव्रता भी बन्दनीय है। पतिव्रता नारी को कबीर ने शूर और दोनों के समान उच्च और अभिनन्दनीय माना है।[५] संक्षेप में कबीर ने नारी के उस स्वरूप की निन्दा की जो मानव को आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर होने से रोकता है। यदि वह इस दोष से रहित है तो वह सर्वथा वन्दनीय है।

मुसलमानों के आक्रमण अकाल, अनावृष्टि, लुटेरों तथा विजेता वर्ग के शोषण ने कबीर के समय तक देश को नितान्त कंगाल बना दिया था। इसका प्रभाव मध्यवर्ग, निम्नवर्ग और किसान तथा मजदूरों परआर्थिक‌ परिस्थिति विशेष रूप से पड़ा। आर्थिक विनाश और अन्नाभव के‌ कारण जनता के लिए जीवन का प्रश्न अत्यन्त विषम बन गया। जनता के इन वर्गों के लिए ईश्वर के अतिरिक्त और किसी का सहारा नही था। इसलिए कबीर ने तत्कालीन जनता को सन्तोष धारण करने का उपदेश


  1. कामिनी सुन्दर सर्पिणी जो छेड़ै तेहि खाय।
    जो गुरुचरन न राचिया तिनके निकट न जाय॥

  2. नैनो काजर पाइ कै गाढ़ै वाघे केस।
    हाथो मेहदी लाइ के बाघिनि खाया देस॥

  3. नारि नसावै तीन गुन जो नर पासे होय।
    भक्ति-मुक्ति निज ध्यान में पैठि न सक्कै कोय॥

  4. सती न पीसै पीसना जो पोसै सो राड।
    साधू भीख न माँगही जो माँगै सो भाँड॥

  5. पतिवरता मैली भली काली कुचित कुरूप।
    पतिव्रता के रूप पर वारो कोटि सरूप॥