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चितावणी कौ अंग]
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भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि हे जीव! तू अपने मन से दो बातों को बिल्कुल निकाल दे एक तो लोभ और दूसरे आत्म-प्रशसा से उत्पन्न अहंकार। इन्हीं दो वस्तुओं के कारण अपने अमूल्य धन परमात्मा को मत खो।

शब्दार्थ—जीवतैं = मन से। अछता = पास का।

खंभा एक गइंद दोइ, क्यूं करि वंधिसि बारि।
मानि करै तौ पीव नहीं, पीव तौ मानि निवारि॥४२॥

सन्दर्भ—प्रभु-भक्ति और अहं की भावना दोनों साथ-साथ नहीं रह सकते हैं।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि हे जीव! तेरे पास हृदय रूपी खम्भा तो एक है और उस खम्भे में बाँधने के लिए दो हाथी प्रभु-भक्ति और अहं हैं। वे दोनों एक ही खम्भे से कैसे बांधे जा सकते हैं। यदि तू अहं की सम्मान की रक्षा करना चाहेगा तो प्रभु प्राप्ति नही पावेगी और यदि प्रियतम - परमात्मा को प्राप्त करना चाहेगा तो अहं का परित्याग करना पड़ेगा।

शब्दार्थ—गइद = गयंद = हाथी।

दीन गंवाया दुनीं सौ, दुनी न चाली साथि।
पाँइ कुहाड़ा मारिया, गाफिल अपणै हाथि॥४३॥

सन्दर्भ—संसार के आकर्षण भरते समय नहीं काम देते हैं उस समय तो प्रभु-भक्ति ही काम देती है।

भावार्थ—जीवात्मा ने सांसारिक माया आकर्षणों में लिप्त रह कर प्रभु को भुला दिया किन्तु मरने पर वह सांसारिक प्रलोभन एक भी जीव के साथ नहीं जाते हैं। इस प्रकार जीवात्मा ने गाफ़िल होकर स्वयं अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार ली है अपनी उन्नति का मार्ग अवरुद्ध कर लिया है।

शब्दार्थ—दीन = धर्म। दुनी = दुनियाँ।

यहु तन तौं सब वन भया, करंम भए कुहाड़ि।
आप आप कूँ काटि हूँ, कहै कबीर विचारि॥४४॥

सन्दर्भ—कर्मों का फल जीव को भोगना नहीं पड़ता है।

भावार्थ—यह सम्पूर्ण शरीर वन के समान है और उसको काटने के लिए जीव के कर्मों की कुल्हाड़ी प्रस्तुत है। कबीर दास जी विचार कर कहते है कि जीव