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चितावणी कौ अंग]
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भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव! तू कपडो को धो-धोकर शरीर को स्वच्छ कर रहा है किंतु ऐसी सफाई से क्या लाभ? वास्तविक पवित्रता आंतरिक पवित्रता हैं। इस बाह्य स्वच्छता से संसार से मुक्ति नहीं होगी इसलिए सुख को निद्रा मे मत पड़ा रह।

शब्दार्थ―मंजन=स्नान। छुटिए=मुक्त होना।

ऊजल कपड़ा पहरि करि, पान सुपारी खाँहि।
एकै हरि का नाँव बिन, बाँधे जमपुरि जाँहि॥५४॥

सन्दर्भ―ईश्वर के नाम स्मरण के बिना जीवको यमपुर की यातनाये भुगतनी पड़ती हैं।

भावार्थ―जो व्यक्ति श्वेत स्वच्छ वस्त्र धारण कर पान सुपारी खाकर अपना जीवन व्यतीत करते रहते हैं वे एक ईश्वर के नाम-स्मरण के बिना यमपुर के बंधनो मे जकड दिए जाते हैं।

तेरा सांगी को नहीं, सब स्वारथ बॅधी लोइ।
मन परतीति न ऊपजै, जीव विसास न होइ॥५५॥

सौंदर्भ―बिना ईश्वर को प्रतीति के जीवात्मा को मुक्ति नहीं मिलती।

भावार्थ—हे जीव! जिनको तू अपना संगी साथी मानता है वे कोई तुम्हारे साथी नहीं है। वे सब तो स्वार्थ मे बंधे हुए हैं। जब तक मन मे ईश्वर की प्रतीति नही होती है तब तक जीवात्मा को मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है।

शब्दार्थ-बंधो=बंधे हुए। लोई=लोग।

माँइ बिड़ाणी वाप बिड़, हम भी मॅझि बिड़ोह।
दरिया केरी नाव ज्यूॅ, सजोगे मिलियाँह॥५६॥

संदर्भ―इस संसार में सभी प्राणी अचानक मिल जाते है और फिर विमुक्त हो जाते हैं।

शब्दार्थ―इस संसार के सभी संबन्ध मिथ्या हैं। माता-पिता, सब नष्ट होने वाले हैं हम भी इस संसार में एक दिन नष्ट हो जायेंगे। यह संसार नदी को नाव के समान है जिसमे सब संबन्थी और मित्र अचानक संयोग मिल भी जाते हैं और विमुक्त भी हो जाते है।

शब्दार्थ-बिड़ाणी=नष्ट होने वाली है।