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[कवीर की साखी
 

 

इत प्रधर, उत घर, बण जण आये हाट।
करम किरांणां बेचि करि, उठि ज लागे बाट॥५७॥

सन्दर्भ―इस ससार मे आकर लोग कर्मों का फल भोग कर फिर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।

भावार्थ—जीवात्मा का घर तो ब्रह्म के पास ही है यह संसार तो उसके लिए परदेश है। लोग इस संसार मे कर्मों का व्यापार करने के लिए आते हैं और कर्मों का किराना―कर्म फल प्राप्त करके बेचकर सब उसी मार्ग का अवलम्बन करते हैं।

शब्दार्थ―प्रघर=पर घर, संसार। बर=ब्रह्म।

नाँन्हाँ काती चित दे महँगे मोलि बिकाइ।
गाहक राजा राम है और न नेड़ा आइ॥५८॥

सन्दर्भ―कर्मों के अनुसार फल देना परमात्मा का ही काम है।

भावार्थ―हे जीवात्मा! तू खूब मन लगाकर सतकर्मों का पतला सूत कात जिससे तुझे अच्छी कीमत प्राप्त होगी। उस कर्म रूपी सूत को लेने वाले केवल राम ही हैं अन्य लोग तो पास आने का साहस भी करते हैं।

शव्दार्थ―नान्हां=पतला। सूत=धागा कामं से तात्पर्य है। नेड़ा=समीप।

डागल ऊपरि दौड़णाँ, सुख निदणीं न सोइ।
पूनै पाये द्यौंहड़े ओछी ठौर न कोइ॥५६॥

सन्दर्भ–जीवन को प्रभु-भक्ति मे ही लगाना चाहिए, व्यर्थं मे नही खोना चाहिए।

भावार्थ―हे मनुष्य! तुझको ऊबड़ खावड भूमि पर दौडना है कठिन साधना करनी है। सुख निद्रा मे अचेत हो कर मत सो। यह मानव शरीर अनेकानेक सुकर्मों के परिणाम स्वरूप प्राप्त हुआ है प्रभु-भक्ति के बिना इसे व्यर्थं मत खो।

शव्दार्थ―डागल=ऊबड खाबड़ भूमि। द्यौंहडे=देवालय (यहाँ मानव शरीर से तात्पर्य है।)

मैं मैं बड़ी बलाइ है, सकै जो निकसी भाजि।
कब लग राखौं हे सखी, रुई पलेटी आगि॥६०॥

सन्दर्भ―अहंकार किमी न किसी दिन प्रकट होकर जीव को नष्ट कर देता है।