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[कबीर की साखी
 

 

भावार्थ―मन सब बातो को जानते हुए भी नाना प्रकार की बुराइयो को करता है। यदि हाथ मे दीपक लेकर चलने वाला भी कुएँ में गिर पड़े तो उस दीपक से क्या लाभ? उसी प्रकार जान बूझ कर भी यदि मन बुराई करता है तो उसे जानने से क्या लाभ?

शव्दार्थ―जाणत जानना। कुवै=कुएँ मे।

हिरदा भीतरि आरसी, मुख देषणां न जाइ।
मुख तौ तौपरि देखिये, जे मन की दुविधा जाइ॥८॥

सन्दर्भ―सासारिक द्वन्द्वो से छुटकारा तभी मिल सकता है जब हृदय के अंदर ब्रह्म का दर्पण हो।

भावार्थ―हृदय के भीतर ही आत्मा का दर्पण है किन्तु उसमे परमात्मा का मुख दिखाई नहीं पड़ता है यदि मन सांसारिक विषयों से अपनी चचलता का परित्याग कर दे तो ब्रह्म के दर्शन हो सकते हैं।

शव्दार्थ―आरसी=दर्पण, शीशा।

मन दीयाँ मन पाइए, मन बिना मन नहीं होइ।
मन उनमन उस अंड ज्यूॅ, अनल अकासां जौइ॥६॥

सन्दर्भ―प्रभु को अपने मन का प्रेम देकर ही उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है।

भावार्थ―परमात्मा का प्रेम उसमे मन लगाने से ही प्राप्त हो सकता है। यह सत्य है कि जब तक भक्त का मन ईश्वर की ओर नहीं लगता तब तक ईश्वर का मन भी भक्त की ओर नही झुकता किन्तु जब तक मन को इस संसार के भोगो मे लगाए रहोगे तब तक परमात्मा को प्राप्ति असम्भव ही है। संसार से उदासी न हुआ मन उस सृष्टि के समान है जैसे आकाश में ब्रह्म की ज्योति प्रकाशित होती है।

शब्दार्थ―मन=प्रेम का हृदय। अकासी=शून्य प्रदेश।

मन गोरख मन गोविन्दौ, मन ही औघड़ होइ।
जे मन राखैं जतनकरि, तौ आपैं करता सोइ॥१०॥

संदर्भ―मन को वश मे करने पर ही उच्चतम स्थान मिलता है।

भावार्थ―मन ही गोरखनाथ है मन हो पर ब्रह्म है और मन ही औघड़ नाथ है। मन ही इन पदों पर पहुँचाने वाला है। यदि मन प्रयत्न-पूर्वक वश में रखा जाये तो यही इस चराचर लोक का कर्ता, नियामक ब्रह्म बन सकता है।