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मन कौं अंग]
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शब्दार्थ―औघड़=एक प्रकार के साधु।

एक ज दोसत हम किया, जिस गलि लाल कबाइ।
सब जग धोबी धोई मरै, तौ भी रंग न जाय॥११॥

सन्दर्भ―प्रेम का रंग किसी के छुडाए नहीं छूटता है।

भावार्थ—मैंने एक ऐसा मित्र बनाया है कि जिसके गले मे लाल कपडा बंधा हुआ है अर्थात् जो प्रेम के रग से ओत-प्रोत है। यह प्रेम का रंग इतना पक्का है कि संसार के सब धोवी मिल करके भो यदि इसके रंग को धोकर छुडाना चाहें तो नहीं छुड़ा सकते हैं।

शब्दार्थ―कबाइ=कपडा।

पाँणीं हीं तैं पातला, धूंवाँ हीं तैं भींण।
पवनाँ वेगि उतावला, सोदोसत कविरै कीन्ह॥१२॥

संदर्भ―कबीरदास ने निराकार ब्रह्म से मित्रता जोड़ी है। उसी के गुरणो का वखान है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि जो पानी से भी पतला धुएं से भी हल्का, और पवन के वेग से भी अधिक वेग वाला है ऐसे परमात्मा से मित्रता की है।

शब्दार्थ―उतावला=तीव्र।

कबीर तुरी पलाँणियाँ, चाबक लीया हाथि।
दिवस थकाँ साँई मिलौं, पीछे पड़िहै राति॥१३॥

संदर्भ―इसी जीवन मे परमात्मा के दर्शन करने के लिए मनरूपी घोड़े को कसने के लिए संयम का चाबुक लेना पडेगा।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने अपने मन रूपी घोड़े को कस करके, पलाद करके, सयम के चाबुक को अपने हाथ में ले लिया है अर्थात् मन पर पूर्ण रूपेण नियन्त्रण कर लिया है। मैं यह चाहता हूँ कि जीवन रूपी दिन का अंत होने के समय तक ही अर्थात् इसी जीवन मे ही परमात्मा के दर्शन कर लूँ क्योकि फिर तो मृत्यु रूपी रात्रि आ जायेगी और जीव को अचेत कर देगी।

शब्दार्थ—तुरी=घोडी। पलाड़ियाँ=कसकर चढ़ने के लिए तैयार कर लिया है।