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[कबीर की साखी
 

 

मनवाँ तौ अधर बस्या, बहुतक झीणां होय।
आलोकत सचु पाईया, कबहुॅ न न्यारा सोइ॥१४॥

सन्दर्भ—ब्रह्म की प्राप्ति ज्ञान के प्रकाश से ही सम्भव है।

भावार्थ―मन अत्यन्त क्षीण होकर अधर मे निराधार ब्रह्म में रम गया है। प्रकाशमय ब्रह्म को आभा पाकर मन सुख का अनुभव कर रहा है और अब वह कभी भी ब्रह्म से अलग नहीं हो सकता है।

शव्दार्थ=निराधार। सच, सत्य ब्रह्म।

मन न मर्या मन करि, सके न पच प्रहारि।
सील साच सरधा नहीं, इन्द्री अजहुॅ उधारि॥१५॥

संदर्भ―बिना इन्द्रियो पर अधिकार किए भवसागर से पार पान कठिन है।

भावार्थ―हे जीव! तूने न तो मन को वश मे किया है और न काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह को ही प्रहार कर नष्ट किया है। शील, सत्य, और श्रद्धा आदि सद् गुणो का भी लोप हो गया है। कबीरदास जी कहते हैं कि यदि मन इन्द्रियो पर आज भी अपनापूर्ण अधिकार कर ले तो उसका भवसागर से उद्धार हो सकता है, अन्यथा नही।

शब्दार्थ―मन करि=संकल्प कर। पंच―काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह।

कबीर मन बिकरै पड़ या, गया स्वाद कै साथि।
गलका खाया वरजता, अब क्यूँ आवै हाथि॥१६॥

संदर्भ―मन इन्द्रियो के वश में हो गया है अब वह काबू मे नही आ सकता।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि मन विषय-वासना के विकारो मे पड़ा हुआ है वह नानाप्रकार के स्वादो के उपभोग मे पढा हुआ है। जो वस्तु गले तक पहुँच गई है उसके लिए अब मना करने से क्या लाभ हो सकता है। इसी प्रकार जो मन इन्द्रियों के वश में हो गया है वह अब किसी भी प्रकार हाथ मे नही आ सकता है।

शब्दार्थ―विकरै=विकारो मे। वरजता=वर्जित किया जाता हुआ।

कबीर मन गाफिल भया, सुमरिण लागै नाहिं।
घणीं सहैगा सासनां, जम की दरगह माहिं॥१७॥