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मन कौ अंग]
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सौंदर्भ―मनको सांसारिक विषय भोगो के बदले नरक मे यातनाएं भोगनी पढ़ेगी।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि नाना प्रकार की विषय-वासनाओ के पीछे दौडते-दौडते मन इतना गाफिल हो गया है कि ईश्वर के नाम-स्मरण मे उसका मन ही नही लगता है। किन्तु उसे अपने इन पाप कर्मों का भोग यमलोक मे जाकर यातना सहकर सहना पड़ेगा।

शब्दार्थ―घणी=अत्यधिक। साँसना=यातनाएं। दरगह=दरबार।

कोटि कर्म पल मैं करै, बहु मन विषिया स्वादि।
सतगुर सबद न मानई, जनम गॅवाया बादि॥१८॥

सौंदर्भ―मन विषय वासना मे पड़ कर अपना सर्वस्व ही गंवा बैठा है।

भावार्थ―यह मन विषयों के स्वाद मे इतना रमण करने लगा है कि पल भर मे हो करोडो दुष्कर्म कर डालता है। और सतगुरु द्वारा दिये गए उपदेशो की अवहेलना करके व्यर्थं मे ही जीवन को नष्ट कर डाला है।

शब्दार्थ―सबद=शब्द। बादि = व्यर्थं।

मैमंता मन मारि रे, घटहीं मांहै घेरि।
जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दे दे फेरि ॥१९॥

सौंदर्भ―मन को सयम रूपी अंकुश से मार देना चाहिए।

भावार्थ—हे जीव! तू अपने मदमस्त मन को अपने हृदय के भीतर ही घेर कर मार दे। और जब भी यह परमात्मा से विमुख होकर इधर-उधर भागने का प्रयत्न करे उसी समय ईश्वर-स्मरण और सयम का अकुश लेकर इसको उचित मार्ग पर लगा देना चाहिए

शब्दार्थ—मैमत्ता=मदमस्त हाथी। घटही माहै―हृदय के अन्तर से।

विशेष―अनुप्रास और रूपक अलंकार।

मैमंता मन मारि रे, नॉन्हाँ करि करि पीसि।
तव सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीसि॥२०॥

सन्दर्भ―मन को वश मे करने से ही ब्रह्म ज्योति का प्रकाश मिलेगा।

भावार्थ―मदमस्त हाथी रूपी मन को संयम के द्वारा इतना कस कर मारो कि सूक्ष्मता को प्राप्त हो जाय। कर्मों को बारीक आटे की तह पीसना चाहिए। तभी आत्मा रूपी सुन्दरी को सुख प्राप्त होगा और सिर से ब्रह्म ज्योति का प्रकाश छिटकता रहेगा ।[