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[कबीर की साखी
 

 

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि मैंने प्रत्येक व्यक्ति से पूछा किन्तु, किसी ने यह नहीं बताया कि इस संसार मे रहने का वास्तविक ढंग क्या है? किन्तु कोई उचित उत्तर दे नहीं पाया। ब्रह्म से किसी ने प्रेम तो किया नही फिर रहने की वास्तविक स्थिति किसी को कैसे ज्ञात हो सकती है।

चलौ चलौ सब कोइ कहै, मोहिं अंदेसा और।
साहिब सूँ परचा नहीं, ए जाहिंगे किस ठौर॥४॥

सन्दर्भ―ब्रह्म से बिना परिचय हुए यदि जीव वहाँ तक जाए भी तो रहे कहाँ?

भावार्थ―इस संसार के सभी प्रारणी ब्रह्म के पास जाने की बात तो करते हैं किन्तु इस बात मे सदेह है कि क्या वे वास्तव मे वहाँ तक पहुँच भी सकेंगे क्योकि ब्रह्म से उनका परिचय तो है नही फिर ये सब कहाँ जाकर रहेंगे?

शब्दार्थ―पर्चा=परिचय।

आइवे कौं जागा नहीं, रहिवे कौं नहीं ठौर।
कहै कबीरा सन्त हौ, अबिगत की गति और॥५॥

सन्दर्भ―निर्गुण ब्रह्म की गति अगम्य है। साधना मे वाह्याडम्बरों की आवश्यकता नहीं है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि ब्रह्म के पास तक आने के लिए ज्ञान नेत्र खुले नही और इस संसार की विषय वासना मे भी सर्वदा रहने के लिए स्थान नहीं है। हे सन्तो! ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग सामान्य रूप से आने वाला नहीं है, अगम्य है।

शब्दार्थ―जागा नही=ज्ञान नेत्र नही खुले।

कबीर मारिग कठिन है, कोई न सकई जाय।
गये ते बहुड़ नहीं, कूसल कहै को आय॥६॥

सन्दर्भ―ब्रह्म के पास पहुँच कर कोई लौटना नहीं फिर वहाँ के समाचार कैसे मालूम हो?

भावार्थ―कवीर दास जो कहते हैं कि परमात्मा के पास तक पहुँचने का मार्ग अत्यधिक कठिन है वहाँ कोई आसानी से पहुँच नहीं सकता है। और जो वहाँ कठिन साधना करके पहुँच भी गये तो वे आवागमन से मुक्त होकर वहाँ से वापस आए हो नहीं फिर वहाँ के कुशल समाचार कौन आकर कहे। शब्दार्थ―बहुरे=लौटे।