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सूषिम मारग कौ अंग]
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जन कबीर का सिषर घर, बाट सलैली सैल।
पाँव न टिकै पपीलिका, लोगनि लादे बैल॥७॥

सन्दर्भ―भक्त कबीर के घर तक पुण्यात्मा और सज्जनो के पैर तो जम नही पाते, फिर पापियो का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

भावार्थ―भक्त कबीर का तो वास्तविक घर ब्रह्मरंधू रूपी शिखर पर स्थिति है और वहाँ का मार्ग नाना प्रकार की बाधाओ के कीचड से परिपूर्ण है। वहाँ पर चीटी जैसा छोटा जीव भी अपने पैर रखकर नहीं जा सकता फिर और मनुष्य तो नाना प्रकार के सासारिक कुकर्मों का बोझ लादे हुए हैं कैसे वहाँ पहुँच सकते हैं।

शब्दार्थ―सिषर=शून्य शिखर। सलैली सैल=कीचड़ आदि से दुर्गम पर्वतीय मार्ग। पपोलिका=पिपीलिका=चीटी।

जहाँ न चींटी चढ़ि सकै, राई ना ठहराइ।
मन पवन का गमि नहीं, वहाँ पहुॅचे जाइ॥८॥

सन्दर्भ―जिस ब्रह्म के पास तक चोटो, वायु और मन की गति भी नहीं है वहाँ तक कबीर पहुँच गए हैं।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि जिस शून्य स्थल पर चीटी तक नही चढ सकतो और राई भी नहीं ठहर सकती मन और पवन को जहाँ तक गति नही है उस सूक्ष्म और सकीणं स्थाव तक मैं पहुँच चुका हूँ।

कबीर मारग अगम है, सब मुनिजन बैठे थाकि।
तहाँ कबीरा चलिगया, गहि सतगुर की सांषि॥९॥

सन्दर्भ―सतगुरु के उपदेश को ग्रहण करके हो साधक ब्रह्म तक पहुँच सकता है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि ब्रह्म-प्राप्ति तक का मार्ग अत्यन्त कठिन है, साधक मुनि भी वहाँ की दुर्गंमता के कारण थक कर बैठ गये हैं जाने की आशा छोड बैठे हैं। ऐसे दुर्गम स्थान पर भी कबीर दास जी सतगुरु के उपदेशो को ग्रहण करके पहुँच गये हैं।

शब्दार्थ―साषि=सीख, उपदेश।

सुर नर था के मुनि जनाँ, जहाँ न कोइ जाइ।
मोटे भाग कबीर के, तहाँ रहे घर छाइ॥१०॥३०२॥

क० सा० फा०-१२