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(८)

'सम्प्रदायों' में भटक रही थी। शिक्षित समुदाय मानवता के धर्म को विसार कर 'पोथी पत्र' को ही धर्म सभक्त बैठा था। रामसिंह, योरीन्दु के समकालीन थे। इन्होंने भी पाखंड के उन बहुत से चित्रों की अभिव्यक्ति अपने काव्य में की है जो तत्कालीन धर्म और समाज में व्याप्त थे। उन्होंने उन 'मुण्डियों' का वर्णन किया है जो मुक्ति की आशा में सिर मुंड़ाए हुए घूम घूमकर जगत् को धोखा देने के साथ ही अपनी आत्मा को भी धोखा देते फिरते थे। कवि रामसिंह ने इन व्याप्त दोषों को बहुत निकट से देखा था। इन उपर्युक्त कवियों के समान ही नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध कवि गोरखनाथ के काव्य में भी तत्कालीन धर्म में व्याप्त दोषों तथा पाखण्डों का अच्छा चित्रण मिलता है। गोरखनाथ के समय में ब्राह्मण बहुपठित तो थे पर उन्हें सार-ज्ञान नहीं था, योगी माया में लिप्त तथा धूर्त्त, साधक निद्रा, मैथुन और माया में लिप्त थे, मन्त्र देने वाले गुरु अहंकारी थे। समय के साथ धर्म में व्याप्त दोषों में भी वृद्धि होती गयी। कबीर के समय तक जनता नितांत पथभ्रष्ट हो चुकी थी। बड़े-बड़े़ योगी माया में लिप्त थे। योगी, पंडित, सन्यासी, मौलाना, काजी सब 'मदमाते', हो रहे थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सत धर्म के भ्रष्ट होकर भटक रहे थे। पीर औलिया हिंसा में प्रवृत्त थे। हिन्दु मुसलमान दोनों ही ब्रह्म के विषय को लेकर परस्पर एक दुसरे के शत्रु बने हुए थे। हिन्दू लोग पत्थरों की पूजा में ही कर्त्तव्य पूर्त्ति समझते थे। साधु लोग वाह्याडम्बरों में प्रवृत्त होकर धन एकत्रित करते फिरते थे। सोना चाँदि के आभूषण पहनते थे। घोड़ा घोड़ियों पर सवारी करके विचरते थे। इस प्रकार साधु-समाज माया का दास हो रहा था[१] साधुओं की भाँति मुल्ला भी पथ भ्रष्ट हो चुके थे। पीर कर्त्तव्यच्युत हो गए थे। उनमें विवेक वृद्धि नष्ट हो गई थी। वे अहिंसा मे प्रवृत थे। इन पीरों और मुल्लाओं का प्रभाव तत्कालीन मुसलमान जनता पर गम्भीर पड़ा। अपने-अपने धार्मिक नेताओं की भक्ति हिन्दू और मुसलमान सभी आचरण कर रहे थे। हिन्दुओं में महन्तों के आदर्शों का अनुकरण हो रहा था। और मुसलमानों में इन पीरों और मुल्लाओं का अंधानुकरण। धर्म के नाम पर अधर्म आचार के नाम पर अनाचार कबीर जैसे उदार दृष्टिकोण वाले व्यक्ति के लिए असह्य था। उन्होंने दोनों को खुब फटकारा।


  1. साधु भया तो भया माला पहिरी चारि।
    बाहर भेष बनाइया भीतर भरी भगरि॥
    भक्त विरक्त लोग मन ठाना, सोना पहिरि लजाबै बाना।
    घोरी घोरा कीन्ह बटोरा, गाँव पाय जस चले करीरा॥