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१६. माया कौ अङ्ग

जग हट वाड़ा स्वाद ठग, माया वेसों लाइ।
राम चरन नीकों ग्रही, जिनि जाइ जनम ठगाई॥१॥

सन्दर्भ―इस संसार मे जीव विषय-वासना और माया के द्वारा ठग लिया जाता है।

भावार्थ―यह संसार एक बड़ा बाजार है जिसमे इंद्रियो के स्वाद रूपी ठग हैं और माया रूपी वेश्या भी जीवको ठगने का प्रयास करती है। ऐसी अवस्था मे हे जीव! यदि तू दृढतापूर्वक ईश्वर के चरणो का सहारा लेगा तब तो ठीक है नही तो इस संसार ही बाजार से विषय-वासना और माया के द्वारा बिना ठगे बच नहीं सकते हो।

शव्दार्थ―वेसा=वेश्या।

विशेष―रूपक अलकार।

कबीर माया पापणीं, फंध ले बैठी हाटि।
सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीरा काटि॥२॥

सन्दर्भ―माया के फंदे से भक्त ही बच पाता है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि माया अत्यन्त पापिनो है वह अपने हाथ फंदा लेकर सारे संसार के प्राणियों को फंसाने के लिए बैठी है। सारा संसार तो उस माया के फदे मे पड गया है अर्थात् सत्र पर माया का प्रभाव पड चुका है किन्तु कबीर ऐसे भक्त ही उस माया के फन्दे को काटकर उससे बाहर हो जाते हैं उसकी पकड़ में नहीं आते हैं।

शब्दार्थ―फन्ध= फन्दा।

कबीर माया पापणीं, लालै, लाया, लोग।
पूरी किनहूॅ न भोगई, इनका ईंहै विजोग॥३॥

सन्दर्भ―माया रूपी वेश्या के फन्दे में फँसकर सभी को कष्ट भोगना पड़ता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि माया अत्यन्त पापिनी है यह संसार के समस्त प्राणियो मे अपने पाने के लालसा को जागृत कर देती है किन्तु वह गृहबहू नही है जिसका एक ही व्यक्ति उपभोग कर सके वह तो वेश्या है उसका पूर्ण