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[कबीर की साखी
 

उपभोग कोई व्यक्ति नहीं कर पाता है। थोड़े समय के लिए माया सबको आकर्षित कर लेती है फिर उससे सबका वियोग हो जाता है। यही ससार का दुःख है।

विशेष―रूपक अलकार

शव्दार्थ―लालै लाया=अपनी प्राप्ति की आशा जागृत करना।

कबीर माया पापणी, हरि सूॅ करै हराम।
मुखि कड़ियाली कुमति की, कहण न देई राम॥४॥

संदर्भ―माया ही प्रभु-भक्ति में बाधक है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि पापी माया अत्यंत दुष्टा है यह जीव को ब्रह्म से मिलने नहीं देती है। यह जीव के मुख से कड़वी बातो को कहवाती रहती है और राम नाम (ब्रह्म) का उच्चारण नहीं होने देती।

शब्दाथ―कड़ियाली=कड़वी।

जाँणौं जे हरि कौं भजौं, मो मनि मोटी आस।
हरि विचि घाले अन्तरा, माया बड़ी बिसास॥५॥

सन्दर्भ―माया जीव और ईश्वर के बीच अन्तर डाल देती है।

भावार्थ―प्रत्यक्ष मे ऐसा लगता है कि मैं परमात्मा का बहुत भजन करता हूँ किन्तु मेरे मन मे सासारिक आशाएं अत्यन्त तीव्रता से भरी हुई है। किन्तु यह माया अत्यत विश्वासघातिनी है यह तो जीव और ब्रह्म के बीच अन्तर डाल देती है।

शव्दार्थ―मोटी आस=विषयो की तीव्र तृष्णा। घालै=डालना। विसास=विश्वासघातिनी।

कबीर माया मोहनी, ‘मोहे जांण सुजांण।
भागां ही छूटै नहीं, भरि भरि मारै बांण॥६॥

सन्दर्भ―माया के प्रभाव से कोई व्यक्ति भाग कर भी नहीं बच सकता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि माया इतनी आकर्षक है कि बडे-बडे ज्ञानी एवं चतुर व्यक्ति भी इसके सम्मोहन से बच नहीं पाते हैं और यदि कोई इसके प्रभाव से भागकर भी बचना चाहे तो यह इतना तान तान कर मोहक बाण चलाती है कि व्यक्ति के ऊपर बाणो का प्रभाव पड़ हो जाता है। लोग माया जाल में फंस ही जाते हैं।

शब्दार्थ―जाण=ज्ञानी। सुजांण=सुजान=चतुर।