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[कवीर की साखी
 

 

भावार्थ―माया सन्तो की सेवा करने वाली दासी है जो खड़ी हुई उनकी आज्ञा का पालन करती रहती है। सन्त लोग ईश्वर का स्मरण करते हुए इसका उपभोग भी करते हैं और इसका तिरस्कार कर लातो से मार-मार कर ठुकराते भी हैं किन्तु अन्य लोगो को यह दुख ही देती है।

शब्दार्थ—ऊँभी=खडी हुई।

माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर।
आसा त्रिवणां नाँ मुई, यों कहि गया कबीर॥११॥

संदर्भ―माया, मन, आशा और तृष्णा की अमरता की ओर संकेत है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार के आवागमन के चक्र के कारण शरीर तो बार-बार मरता है किन्तु माया के आकर्षण और मन की विषयों के पीछे की दौड़ समाप्त न हुई, और कभी सांसारिक आशाओ कामनाओ और तृष्णा का ही अन्त हुआ।

शब्दार्थ—मुई=मरी।

आसा जीवै जग मरै, लोग मरे मरि जाइ।
सोइ मूवे धन संचते, सो ऊबरे जे खाइ॥१२॥

सन्दर्भ―कबीर दास जी धन संचय पर बल नही देते हैं।

भावार्थ=इस संसार मे लोग एक-एक करके मरते जाते हैं और इस प्रकार सारा संसार ही मरताजा रहा है किन्तु फिर भी आशा जीवित ही बनी है। लोगो के मरने पर भी आशा उनका साथ नहीं छोड़ती है। वे ही व्यक्ति भरते हैं जो धन का संचय किया करते हैं और जो लोग इस धन को खा पी कर साफ कर देते हैं वे इस भव-सागर से पार उतर जाते हैं।

शब्दार्थ―मूवे=मरते हैं।

कबीर सो धन संचिए, जो आगैं कू होइ।
सीस चढ़ाये पोटली, ले जात न देख्या कोई॥१३॥

सन्दर्भ―धन सग्रह अच्छी बात नही है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि सुकृत्यो और पुण्यो का ऐसा धन संग्रह करना चाहिए आने के लिए परलोक में काम दे। यद्यपि इस संसार मे लोग धन की गठरी लादे हुए फिरते रहते हैं किन्तु कोई भी व्यक्ति नहीं देखा गया जो उस धन को परलोक ले गया हो। वह सारा का सारा धन यहीं पर पड़ा रह जाता है।