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माया कौ अंग]
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त्रिया त्रिषणाँ पापणीं, तासू प्रीति न जोड़ि।
पैंड़ी चढ़ पाछाँ पड़ै, लागै मोटी खोड़ि॥१४॥

सन्दर्भ―तृष्णा से विलग रहने का सकेत है।

भावार्थ―कबीर दास जी जीव को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तृष्णा रूपी स्त्री बडी ही पापिनी और वेश्या के समान है अतः तू इससे प्रेम का व्यवहार न कर। पहले तो यह पीछे पडकर जीव को आकर्षित करती है किन्तु इसके संसर्ग से जीव को अनेक दोषो का शिकार बनना पडता है।

शव्दार्थ―खोडि=अपराध, पाप

त्रिष्णां सांचीं नां बुझै, दिन-दिन बढ़ती जाय।
जवासा के रूप ज्यूं, घण मेहाॅ कुमिलाइ॥१५॥

सन्दर्भ―सासारिक तृष्णा का विनाश प्रभु-भक्ति से ही सभव है।

भावार्थ―सासारिक तृष्णा को जितना ही अधिक शान्त करने का प्रयास किया जाता है वह दिन प्रति दिन उतना ही अधिक बदली जाती है। जिस प्रकार जवासा जितनी ही अधिक वर्षा होती है उतना ही अधिक मुरझाता जाता है उसी प्रकार यह सासारिक तृष्णा भी प्रभु-भक्ति रूपी से हो मुरझा कर शान्त हो सकती है अन्य किसी विधि से नही।

विशेष―(१) विभावना अलकार।
(२) जवासा वरसात मे मुरझा जाता है―

“अर्क जवास पात बिनु मयऊ।”

मानस―किष्किन्धा काण्ड

शब्दार्थ―बघती=बढती। घण=घना, अधिक।

कबीर जग की को कहै, यौ जल बूढै दास।
पारब्रह्म पति छाँड़ि करि, करैं मान की आस॥१६॥

सन्दर्भ―ब्रह्म से विमुख भक्त भी संसार सागर मे डूब जाते हैं।”

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि ससार के साधारण व्यक्तियों की बात कौन कहे भगवान के भक्त भी इस संसार-सागर मे डूबते उतराते हैं किन्तु भक्त उसी अवस्था मे डूबते हैं जब पर ब्रह्म ऐसे स्वामी को छोड़कर सांसारिक मान सम्मान की आशा मे इधर उधर भटकते रहते हैं।

शब्दार्थ―भौजलि=भव जल=संसार सागर।

माया तजी तौ का भया, मानि तजी नहीं जाइ।
मनि बड़ै मुनियर मिले, मानि सबनि कौ खाइ॥१७॥