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[कबीर की साखी
 

 

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार मे जीव की आँखो पर माया और मोह का अन्धकार छाया हुआ है अतः उसे उचित मार्ग नही दिखाई पडता है। जो व्यक्ति इस माया और मोह के अन्धकार मे सावधान न रहकर अज्ञान मे सोते ही रहते हैं वे ठग लिए जाते हैं और बाद मे मुक्ति रूपी अपनो वस्तु के लिए रोते ही रह जाते हैं।

शव्दार्थ―लोइ=नेत्र। मुसि=ठगलिए। वसत=वस्तु, सारतत्व।

संकल ही तै सब लहै, माया इहि संसार।
ते क्यूँ छूटैं बापुड़े, बाँधे सिरजनहार॥२५॥

सन्दर्भ―ब्रह्म के द्वारा माया के बंधन में बांधा जीव कैसे मुक्त हो सकता है?

भावार्थ―इस संसार के समस्त प्राणी माया की श्रृंखलाओ मे जकड़े हुए हैं किन्तु जब उनके सृजनकर्ता ब्रह्म ने ही उनको माया मे बाँध दिया है तो फिर वे मुक्त ही कैसे हो सकते हैं?

शव्दार्थ―संकल=साक्त, श्रृंखला। बापुडे=बपुरे=बेचारे।

बाड़ि चंढ़ति बेलि ज्यूँ, उलझी आसा कंध।
तूटै पणि छूटै नहीं, भई ज बाचा बंध॥२६॥

सन्दर्भ―माया रूपी बेलि को तोड़ा जा सकता है किन्तु छुडाया नही जा सकता है।

भावार्थ―यह माया संसार रूपी बाडी पर बेलि के समान है और आशा के फंदो मे इसे उलझा दिया गया है। अर्थात् यह माया जीव को आशा और तृष्णा के फंदो मे उलझा देती है। यह टूट सकती है किन्तु किसी प्रकार से छुडाई नही जा सकती है। मानो हानि या लाभ कुछ भी होने पर यह जीवात्मा को पकडे रहने की प्रतिज्ञा कर चुकी है।

शव्दार्थ―फंध=फंदा। वाचावन्ध=वचन वद्ध।

सब आसण आसा तणाँ, निवर्ति कै को नाहिं।
निर्वत्ति के निबहै नहीं, परवति पर पंचमांहि॥२७॥

सन्दर्भ―संसार से तटस्थ होकर, प्रवृत्ति मार्ग का परित्याग करके ही निवृत्ति वैराग्य (ईश्वर से राग) उत्पन्न हो सकता है ।

भावार्थ―संसार के समस्त प्राणी आशावान् है सभी पर आशा की प्रभाव है। कोई निवृत्ति मार्गी नहीं है। जो प्रवृत्ति मार्ग का अनुरागी है भला वह आशा से परे होकर निवृत्ति मार्गी कैसे हो सकता है?