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[कबीर की साखी
 

नारद ऐसे प्रभु भक्तों तक को अपने जाल मे फॉस लिया है तो फिर इसका भरोसा कैसे किया जा सकता है?

शब्दार्थ―गिले=नष्ट कर दिये।

माया की झल जग जल्या, कनक कॉमिणीं लागि।
कहू, धौं, किहि विधि राखिए, रूई पलेटी आगि॥३२॥

संदर्भ―कनक और कामिनी के प्रभाव मे पडा मनुष्य अधिक समय तक नहीं टिक सकता।

भावार्थ―कनक और कामिनी-धन और स्त्री के लोभ में फंसकर सारा संसार मसा के जल मे फंस गया और उसी की लपट मे जलने लगा भस्म हो गया। माया तो रूई मे लपेटी हुई आग समान है जिस प्रकार रूई मे लपेटी हुई आग थोडे समय मे ही रूई को जलाने लगती है उसी प्रकार माया भी संसार को जलाने लगती है।

विशेष―निदर्शना अलंकार।

शव्दार्थ―झल=अग्नि। पलेटो=लपेटी हुई।


 

१६. चांणक कौ अंग

जिव बिलंब्या जीव सौ, अलख न लखिया जाइ।
गोबिंद मिलै न झल बुझै, रहि बुझाइ बुझाइ॥१॥

सन्दर्भ―माया जन्य दुखो की ज्वाला प्रभु दर्शनो से ही शांत हो सकती है।

भावार्थ―एक जीव दूसरे जीव का सहारा ले रहा है अलक्ष (नराकार) परमात्मा को कोई नहीं देखता। जब तक प्रभु मिलन नहीं होगा तब तक सांसारिक तापो कि अग्नि का बुझना शान्त होना असम्भव है भले हो इसके बुझाने के अनेको प्रयत्न किये जायें।

शब्दार्थ―विलंब्या=सहारा लिया। अलप=निराकार ब्रह्म। झल=अग्नि।

इहि उदार के कारणैं, जग जाच्यौं निस जाम।
स्वामीं पणों जु सिरि चढयौ, सरया न एकौ काम॥२॥