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चाणक कौ अंग]
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चारिऊॅ वेद पढ़ाई करि, हरि सूॅ न लाया हेत।
वालि कबीरा ले गया, पण्डित ढूॅढै खेत॥६॥

सौंदर्भ―पुराण पथियो की निन्दा और व्यंग्य है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि चारो वेदो को पढ़ करके भी पंडित परमात्मा से प्रेम नही कर पाते हैं। भक्ति की भावना उनमे नही आ पाती है। भक्ति रूपी खेती की वास्तविक फसल बाली को तो मैंने ग्रहण कर लिया है अब पडित लोग व्यर्थं मे उसमे अग्न खोजने-की तत्व खोजने की चेष्टा कर रहे हैं।

शब्दार्थ―बालि=वाली।

ब्राह्मण गुरु जगत का, साधू का गुरु नाहि।
उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिडॅ वेदां माहिं॥१०॥

सन्दर्भ―वेदो को निन्दा की गई है।

भावार्थ—ब्राह्मण तो सारे संसार का गुरु है किन्तु वह साधुओ का गुरु नहीं हो सकता है क्योकि वह तो चारो वेदो को ही उलट-पुलट कर ब्रह्म तत्व को खोजता रहता है और साधू प्रेम के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं।

शव्दार्थ―उरझि पुरझि=उलझ-पुलझकर।

साषित सण का जेवड़ा, भीगाँ सूॅ कठठाइ।
दोइ आषिर गुरु बाहिरा, बांध्या जमपुर जाइ॥११॥

सन्दर्भ―इस साखी मे कबीर का शाक्तो के प्रति विरोध व्यक्त हुआ है।

भावार्थ-कबीरदास जी कहते हैं कि शाक्त सम्प्रदाय को मानने वाले व्यक्ति सन की रस्सी के समान होते हैं जो जितना हो अधिक भीगती है उतना ही अधिक कड़ी होती जाती है उसी प्रकार शाक्त भी सासारिक विषय-वासनाओ मे लिपटते जाते हैं। वह राम नाम के दो अक्षरो और गुरु से बिलग होने के कारण सीधा बंधा हुआ यमपुर को चला जाता है।

शब्दार्थ―साषित=शाक्त। कठठाइ=कडा होता है।

पाड़ोसी सूॅ रूसणाँ, तिल-तिल सुख की हाँणि।
पंडित भये सरावगी, पॉणी पीवै छाॅणि॥१२॥

सन्दर्भ―पड़ोसी से द्वेष करने से हुख कभी नहीं प्राप्त हो सकता है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि अपने पडोसी से रूठ जाने पर प्रत्येक क्षरण के सुख की हानि होती रहती है किन्तु इसका विचार जैन सम्प्रदाय वाले नही करते हैं वे पानी तो छान-छान कर पोते हैं किन्तु पड़ोसियों से रूठे रहते हैं।