पृष्ठ:Kabir Granthavali.pdf/२११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२००]
[कबीर की साखी
 

 

भावार्थ―जब तक शरीर कामनामय रहता है तब तक सभी स्त्री पुरुष नरक के कीड़े के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो व्यक्ति निष्कम रूप से ईश्वर की भक्ति करते हैं वे ही वास्तव मे ईश्वर प्रेमी हैं।

शब्दार्थ―सकाम=कामनामय। निहकाम=निष्काम।

नारी सेती नेह, बुधि बिवेक सबही हरै।
कांइ गमावै देह, कारिज कोई नां सरैं॥८॥

संदर्भ―स्त्री के प्रेम मे विवेक नष्ट हो जाता है।

भावार्थ―स्त्री के प्रति प्रेम व्यक्ति की बुद्धि, विवेक सब का हरण कर लेता है। हे जीव! तू क्यो अपनी शारीरिक शक्तियों का अपहरण कर रहा है? इससे तो तेरा कोई भी कार्य सफल नहीं होगा।

शब्दार्थ―काह=क्यो? सरै=पूरा होना।

नाना भोजन स्वाद सुख, नारी सेती रंग।
वेगि छाड़ि पछिताइगा, ह्वै है मूरति भंग॥६॥

सन्दर्भ―इन्द्रिय सुखो मे अनुरक्त शरीर की शक्ति कम होने पर मनुष्य पश्चाताप करता है।

भावार्थ―हे मनुष्य! तू नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजनो और स्त्री के साथ विलास करने के सुख को शीघ्र ही छोड़ दे अन्यथा जब तेरा रूप सौन्दर्य नष्ट हो जायगा तब तुझे पश्चाताप करना पडेगा।

शव्दार्थ—मूरति=रूप सौन्दर्यं।

नारि नसावै तीन सुख, जा नर पासैं होइ।
भगति, मुकति, निज ग्यान में, पैसि न सकई कोय॥१०॥

सन्दर्भ―कामी मनुष्य का सम्बन्ध भक्ति मुक्ति और आत्म ज्ञान से नही होता है।

भावार्थ―स्त्री का संपर्क मनुष्य को भक्ति, मुक्ति और आत्म ज्ञान इन तीनो सुखो से वंचित कर देता है। कामी मनुष्यो का इन तीनो से कोई भी सम्बन्ध नही रहता है।

शब्दार्थ-पैसि=प्रवेश।

एक कनक अरु कांमनीं, विषकल कीए उपाइ।
देखै ही थैं विष चढ़ें, खाँयें सूॅ मरि जाइ ।। १२ ।।

सन्दर्भ―वन और स्त्री के उपभोग से प्राणी मृत्यु को ही प्राप्त हो जाता है