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कामी नर को अंग]
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कामीं अमीं न भावई, बिषई कौ ले सोधि।
कुबोधि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोधि॥१९॥

सन्दर्भ―स्वयं प्रभु के समझाने पर भी कामी पुरुषो को समझ नहीं आ पाती हैं।

भावार्थ―कामी पुरुष को प्रभु भक्ति रूपी अमृत अच्छा नहीं लगता है वह तो इन्द्रियों के विषयो को खोजा करता है यदि साक्षात प्रभु ही आकर ऐसे जीव को उपदेश देने लगे तो भी उसकी कुबुद्धि नष्ट नहीं होती है।

शब्दार्थ―अमी=अमृत। स्यंभ=शभु, ईश्वर।

विषै बिलंबी आत्माँ, ताका मजकण खाया सोधि।
ग्याँन अंकुर न ऊगई, भावै निज प्रमोध॥२०॥

संदर्भ―उपदेशो का प्रभाव कामी पुरुषो पर नहीं पड़ता है।

भावार्थ―विषय भोगो मे लिप्त जीवात्मा के शरीर के मज्जा के प्रत्येक कण-कण को विषय की प्रवृत्ति खोज खोजकर खा लेती है । इस प्रकार के व्यक्ति के अंतःकरण मे ज्ञान का अकुर अंकुरित नहीं होता है उसे चाहे जितने उपदेश दिये जाँय। उसे तो अपने आपका उपदेश ही अच्छा लगता है।

शब्दार्थ―विलबी=लगी हुई। मजकण=मज्जा का कण।

विषै कर्म की कंचुली, पहरि हुआ नर नाग।
सिर फोड़ै सूझै नहीं, को आगिला अभाग॥२१॥

सन्दर्भ―विषय-वासना मे लगा हुआ व्यक्ति आत्म तत्व को नही पहचान पाता है।

भावार्थ―विषय वासना रूपी कर्मों की केंचुल को पहन कर मनुष्य सर्प तुल्य हो जाता है। जिस प्रकार सर्प केचुलो से ढका होने पर सिर पटक पटककर देखने पर भी आत्म स्वरूप को नहीं देख पाता है उसी प्रकार विषयी पुरुष भरसक प्रयास करने पर भी आत्मा स्वरूप को नहीं जान पाते हैं।

शब्दार्थ―सिर फोडैं=भरसक प्रयत्न करने पर भी।

विशेष―दृष्टान्त अलंकार।

कामीं कदे न हरि भजै, जपै न केसौ जाप।
राम कह्यां थैं जलि मरै, को पूरिबला पाप॥२२॥

सन्दर्भ―कामी पुरुष को प्रभु भजन अच्छा नहीं लगता है।

भावार्थ―कामी पुरुष कभी भी ईश्वर का भजन नहीं करता है और न वह केशव नाम का सकीर्तन ही करता है यह उपके पूर्व जन्म के पापो का ही परिणाम