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[कबीर की साखी
 

है कि यदि उसके समक्ष कोई दूसरा भी व्यक्ति राम का नाम ले लेता है तो वह क्रोधाभिभूत हो जाता है।

शब्दार्थ――करे=कभी। केसौ=केशव, प्रभु।

कामी लज्या नां करै, मन मांहै अहिलाद।
नींद न मांगै सांथरा, भूष न मांगै स्वाद॥२३॥

सन्दर्भ――कामी पुरुष निर्जज्जता के कारण भले बुरे पर ध्यान नहीं देता है।

भावार्थ――कामी पुरुष लज्जा नहीं करता है अपितु उसके मन मे अपने कुकर्मों के प्रति भी प्रसन्नता हो होती है। जिस प्रकार नींद मे मस्त आदमी शैया की चिन्ता न कर कही भी सो जाता है और भूखा व्यक्ति स्वाद नही देखता कुछ भी खाकर भूख शान्त करने लगता है उसी प्रकार कामी पुरुष भले बुरे का ध्यान नहीं रखता है।

शव्दार्थ――अहिलाद=आह्लाद, प्रसन्नता। साथरा=शय्या।

नारि पराई आपणीं, भुगत्या नरकहि जाइ।
आगि आगि सबरो कहैं, तामैं हाथ न बाहि॥२४॥

सन्दर्भ――कबीर मनुष्यो को नारी से अलग रहने का उपदेश देते हैं।

भावार्थ――जो व्यक्ति दूसरे को स्त्री का उपभोग अपनी स्त्री के समान करते हैं वे सीधे नरक को ही जाते हैं। हे मनुष्य! जिस स्त्री को सारा संसार अग्नि-अग्नि कहकर घातक बतलाता है उसमे तू अपना हाथ न डाल। उससे तू अलग रहने की चेष्टा कर।

शब्दार्थ――भुगत्या=भोग करने पर। वादि=डाल।

कबीर कहता जात हौ, चेतै नहीं गॅवार॥
वैरागी गिरही कहा, कामी वार न पार॥२५॥

सन्दर्भ――काम वासना की ओर उन्मुख हुए व्यक्ति का कही, स्थान नहीं होता है।

भावार्थ――कबीर दास जी कहते हैं कि मैं कहता हुआ जाता हूँ कि सांसा- रिक प्राणियो को चेत नही आता है। चाहे वैरागी हो और चाहे गृहस्य कामी पुरुष कही वार-पार नही होता है। उसे कही भी स्थान नहीं प्राप्त होता है।

शब्दार्थ――गिरही=गृहस्य।

ग्यानी तौ नींडर भया,मानौ नाँही संक।
इन्द्री केरे षसि पड्या, भूॅचै विषै निसंक॥२६॥