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२२. साँच कौ अङ्ग

कबीर पूॅजी साह की, तूॅ जिन खोवैष्वार।
खरी विगूचनि होइगी, लेखा देती बार॥१॥

सन्दर्भ――जीव को सम्बोधित करते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि आत्मा के सच्चे रूप को भुला देने से बडी परेशानी होगी।

भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव! तू परमात्मा रूपी सेठ की दी हुई पूंजी को व्यर्थ ही नष्ट मतकर अन्यथा मृत्यु के उपरान्त कर्मों का लेखा-जोखा देते समय तुझे भारी कठिनाई मे पडना होगा।

शब्दार्थ――ष्वार=व्यर्थं। विगूचनि=कठिनाई।

लेखा देणां सोहरा, जे दिल साँचा होइ।
उस चंगे दीवांन मैं, पला न पकड़ै कोइ॥२॥

सन्दर्भ――सत्य प्रिय व्यक्ति को परमात्मा के समक्ष कोई कष्ट नहीं होता है।

भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं कि यदि तुम्हारा मन सच्चा है तो परमात्मा के समक्ष तुम्हे अपने कर्मों का हिसाब देने मे आनन्द ही आयेगा कष्ट नहीं होगा। और उस परमात्मा के दरबार में सत्य प्रिय व्यक्ति का दामन नही कोई पकड सकता है कोई उसको निकाल नही सकता है।

शब्दार्थ――सोहरा=अच्छा। पला=दामन।

कबीर चित्त चमंकिया, किया पयाना दूरि।
काइथि कागद काढ़िया, तब दरगह लेखा पूरि॥३॥

सन्दर्भ――सच्चा व्यक्ति हिसाब-किताब मे खरा निकलता है और जीव सत्कर्मों के द्वारा ही जीवन्मुक्त हो पाता है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि मेरो आत्मा ने दूर देश――ब्रह्म के समीप प्रयाण किया तो चित्त प्रसन्न हो गया और वहीं पर जब चित्रगुप्त ने मेरे कर्मों का लेखा-जोखा निकाला तो वह पूर्ण निकला।

शब्दार्थ――चमकिया=प्रसन्न हुआ। पयाना=प्रयाण। काइथि=कायस्थ, चित्रगुप्त। दरिगह=दरबार।