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कबीर के युग में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही के धर्म में 'हिंसा' वृत्ति समाविष्ट हो गई थी। कबीर ने काजी सैय्यद, औलिया और पीर आदि को डाँटते हुए पूछा कि 'बकरी मुर्गी का तुम किसकी आज्ञा से हनन करते हो। दिन भर तो रोजा रहते हो और रात में गाय खाते हो। भला तुम्हारा खुदा किस प्रकार से इस आचरण पर प्रसन्न होगा।' इसी प्रकार उन्होंने हिन्दू योगियों से पूछा कि "कब नारद बन्दूक चलाया।"

इस प्रकार कबीर ने तत्कालीन हिन्दू तथा मुसलमानों के धर्म में व्याप्त दोषों तथा बाह्याडम्बरों को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने दोनों विरोधी वर्गों की एकता और प्रेम का मार्ग प्रदर्शित किया और पारस्परिक विरोधी भावनाओं को शान्त करने का प्रयत्न किया।

रामानन्द के पश्चात् सन्त कवियों ने अपने उपदेशों का माध्यम हिन्दी भाषा बनाया। वे इस बात को समझ गये थे कि यदि अधिक से अधिक जनता में स्वमत का प्रचार करना है, तो हिन्दी का ही आश्रय ग्रहण करना पड़ेगा। भाषा फलतः उन्होंने हिन्दी में ही अपने विचारों को प्रकट किया। सन्तों ने विद्वत्समाज की स्तुतिनिन्दा, अथवा योग्यता-प्रदर्शन की आवश्यकता न समझ कर जनता की भाषा में ही उपदेश किया। रामानन्द ने संस्कृत के विद्वान होते हुए भी जन-हितार्थ हिन्दी में उपदेश दिये। परन्तु बाद के कवियों ने संस्कृत के विपक्ष और भाषा की सराहना भी की जिनमें से कबीर विशेष उल्लेखनीय हैं। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में संस्कृत को 'कूपजल' कहा और भाषा की बहते हुए नीर से तुलना की। इससे कबीर के भाषा विषयक आदर्श प्रकट होते हैं।

देश की संघर्षमयी परिस्थिति का कबीर पर प्रभाव पड़ा। मानव की निम्न तथा हेय प्रवृत्तियों के विरुद्ध कबीर दास ने अपने शांत एवं प्रभावशाली स्वर में क्षमा, दया, विश्वबन्धुत्व,

एकता तथा समता का संदेश दिया और अपने युग उपसंहार को सही मार्ग पर अग्रसर करने का प्रयत्न किया।

उस युग की हलचल, अशांति, आडम्बर और विडम्बना का मापदण्ड कबीर का स्वर और उनका 'सहज' संदेश है।