२३. भ्रम विधौं सण कौ अंग
पाहण केरा पूतला, करि पूजै करतार।
इही भरोसै जे रहे, ते बूड़े काली धार॥१॥
सन्दर्भ――कबीर का मूर्ति पूजा के प्रति विरोध प्रदर्शित है।
भावार्थ――मनुष्य पत्थर के पुतले को मूर्ति-को-ईश्वर मानकर पूजते हैं और जो इस पाषाण मूर्ति को ईश्वर ही मानते रहते हैं वे काली धारा मे डूब जाते हैं।
शब्दार्थ――पाहण―पाषाण। पूतला=मूर्ति।
काजल केरी कोठरी, मसि के कर्म कपाट।
पाँहनि बोई पृथमीं, पण्डित पाड़ी बाट॥२॥
संदर्भ——कबीरदास ने मूर्ति पूजा को ढोग बताया है।
भावार्थ――यह संसार काजल की कोठरी के समान है उसमे कालिमा युक्त कर्मों-कुकर्मों के किवाड लगे हुए हैं और पंडितों ने अपना ढोग रचकर सम्पूर्ण पृथ्वी को पत्थरो की मूर्तियो से ढंक दिया है मानो उसी रास्ते से वे स्वर्ग जाने की तैयारी कर रहे हो।
शव्दार्थ――पृथमी=पृथ्वी। पाड़ी=निकाली।
पाहन कूॅ का पूजिए, जे जनम न देई जाब।
आँधा नर आसामुषी, यौहीं खोवै आव॥३॥
संदर्भ――पत्थरो की पूजा व्यर्थ है।
भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं कि उस पत्थर को पूजने से क्या लाभ? जो जीवन भर उत्तर ही नहीं देती है और विभिन्न प्रकार की आशाओ को लगाए हुए मनुष्य मूर्ति पूजा कर करके अपने आत्म-सम्मान को व्यर्थ ही नष्ट कर रहा है।
शब्दार्थ――जाव=जवाब, उत्तर। आँधा अज्ञानी।
हम भी पांहन पूजते, होते रन के रोझ।
सतगुर की कृपा भई, डारया सिर थैं बोझ॥४॥
सन्दर्भ――कबीरदास कहते हैं कि हमने सतगुरू की कृपा से मूर्ति पूजा नही की है।